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"असली पहचान : नई सदी, नई मुसीबतें" (लघुकथा)

"लगता है वाक़ई बहुत गड़बड़ हो गई। कुछ ज़्यादा ही नेक साहित्य पढ़ ऊल-जलूल उसूल बना कर उलझन में डाल दिया अपनी इस शख़्सियत को!" एक मुशायरे में शामिल होने के लिए मिर्ज़ा साहिब सूटकेस जमाते हुए पिछले अनुभवों से 'सबक़' सीखने की कोशिश कर रहे थे; आजकल के हालात के हिसाब से अपने कुछ फैसले वे बदलने की सोच रहे थे।
"उस दाढ़ी वाले मुल्लाजी को रोक कर ज़रा उसकी तलाशी तो लो!" उनके पिछले अनुभव की पुनरावृत्ति करते हुए देर रात ग़श्त लगाते हुए एक पुलिस वाले ने अपने साथी को निर्देश दिया था पिछली दफ़े। मिर्ज़ा जी को आवाज़ देकर रोका गया; उनकी और उनके सूटकेस की जांच-तलाशी की गई थी। उस समय की पूछताछ याद कर आज फिर वे सिहर उठे थे।
"साहब! कुछ संदेहास्पद चीज़ें हैं!"
"क्या है?"
"तीन-चार तरह की सर ढांकने की टोपी, रंगीन बड़े से रूमाल वग़ैरह!" साहब को जवाब देते हुए पुलिसकर्मी ने कहा।
"क्यों वे दाढ़ी रखकर सभी धार्मिक-स्थलों पर क्या करता-करवाता फिरता है तू!" साहब ने थाने का डंडा घुमाते हुए भौंहें चढ़ाकर कहा था।
"साहब, मैं कोई वैसा मुल्ला-संत नहीं, एक सच्चा मुस्लिम शायर हूं; साहित्यकार हूं! हर मुसाफ़िरखाने में ठहर कर वहां के क़ायदे-नियमों का पालन करते हुए ये चीज़ें सूटकेस में जमा हैं! कहीं ठहरते वक़्त दोबारा नहीं ख़रीदनी पड़तीं! पिछले दफ़े दिल्ली के साहित्यिक सम्मेलन वास्ते वहां के गुरूद्वारे में दो-तीन दिन सहूलियत व अख़्लाक के साथ ठहरा था!"
"तुझे मालूम नहीं कि किस शक़ में तुझे संदेह के आधार पर थाने ले जाया जा सकता है! सारी शायरी जेल में घुस जायेगी!" मिर्ज़ा साहिब को डांटते हुए उसने साथी पुलिस वाले को कोई इशारा किया था।
"चलो थाने या फिर सौ का नोट जमा कर सीधे ऑटो से घर जाओ, पैदल नहीं! समझे!"
"लेकिन साहिब मैंने कोई गुनाह थोड़े न किया है गुरुद्वारे और मुसाफ़िरख़ानों में ठहर कर! ... और मैं तो पांच-सात किलोमीटर पैदल भी चल सकता हूं; मुझे पसंद है और फ़ायदेमंद भी!"
"लगता है समाचार नहीं सुनता! मज़हबी और साहित्यिक क़िताबी कीड़ा है! ... छोड़ यार इसको!" साहब ने उनसे 'पैसे लेना' ठीक नहीं समझा!
"... छोड़ रहा हूं! लेकिन ये सब धार्मिक सामान रखकर मत चला करो; ओरिजनल परिचय-पत्र और आधार कार्ड साथ में रखा करो असली पहचान के लिए! समझे!"
मिर्ज़ा साहिब ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए उन दोनों को घूर कर देखा था और सूटकेस थाम कर तेज़ क़दमों से चलकर ऑटो-रिक्शे वाले को पुकारने लगे थे।

यह सब याद कर इस बार 'मुसीबत' वाले सामान और क़िताबें हटाते हुए मिर्ज़ा साहिब ने  कुछ छोटा सा सूटकेस जमाया और बेगम साहिबा से विदा लेते हुए बोले - "फ़िक्र मत करना! तज़र्बेकार हूं; हिफ़ाज़त, असली पहचान और इज़्ज़त का पूरा ख़्याल रखूँगा।"


(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Samar kabeer on August 18, 2018 at 2:33pm

जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी जी आदाब,अच्छी लघुकथा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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