212 1212 1212 1212
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बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,
रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।
ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,
डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।
गर सफर में हमसफ़र मिले तो फिर ये सोचना,
ज़िंदगी में लगती हैं ये अर्जियाँ कभी-कभी ।
उठ गए जो मुझको देख उम्र का लिहाज़ कर,
मुस्कराता देख अपनी झुर्रियाँ कभी-कभी ।
इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।
ज़िन्दगी में दोस्ती का आज भी मुकाम है,
फुरकतें भी लाज़िमी हैं दरमियाँ कभी-कभी ।
बेदिली की आग में वो छोड़ गए थे साथ जब,
सुनता हूँ सदाओं में वो सिसकियाँ कभी-कभी ।
डोलता नहीं हूँ देख शोखियों भरा ये दिल,
पर लुभायें ज़ुल्फ़ की ये बदलियाँ कभी-कभी ।
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मौलिक व अप्रकाशित
--हर्ष महाजन
Comment
आ. हर्ष जी
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।.. दीखती नहीं पढ़ सकते ..फिर सोचिये..
सादर
आदरणीय श्यामवीर जी आपकी आमद और पसंदगी का बहुत बहुत शुक्रिया ।
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय |
आदरणीय सुशील सरना जी आदाब ।
आपकी पसंदगी के लिए दिली आभार और शुक्रिया ।
सादर ।
आदरणीय समर जी आदाब । आपकी ग़ज़ल पसंद आयी तो सर लिखना सार्थक हुआ । जी हाँ आ.नीलेश जी की कही चीजों पर ध्यान रख दोनों अशआर में तब्दीली की है ।
आपकी आमद का बहुत बहुत धन्यवाद सर ।
सादर ।
आदरणीय नीलेश सर आपकी आमद का दिली शुक्रिया और आभार ।
आपकी निशानदेही को देखकर तब्दीली की है ज़रा वक़्त मिले तो देखिएगा ।
वो दोनों अशआर में तब्दीली की है सर:....
इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।
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डोलता नहीं हूँ देख शोखियाँ भरा भी दिल,
पर लुभाये ज़ुल्फ़ की ये बदलियाँ कभी-कभी ।
सादर ।
बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,
रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।
ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,
डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।
अति सुंदर सृजन सर।
जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
जनाब निलेश जी की बातों का संज्ञान लें ।
आ. हर्ष जी
अच्छी ग़ज़ल हुई है ///
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पर्दे में है चाँद औ दहकते प्यार की धड़कनें,/// ये मिसरा लय में नहीं है
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चलती हैं खुदा की ऐसी मर्ज़ियाँ कभी-कभी.. ख़ुदा की मर्ज़ी तो हमेशा ही चलती है..अत: कभी कभी कहना ठीक नहीं है
ग़ज़ल के लिए बधाई
सादर
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