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बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी

212 1212 1212 1212

...

बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,
रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,
डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।

गर सफर में हमसफ़र मिले तो फिर ये सोचना,
ज़िंदगी में लगती हैं ये अर्जियाँ कभी-कभी ।

उठ गए जो मुझको देख उम्र का लिहाज़ कर,
मुस्कराता देख अपनी झुर्रियाँ कभी-कभी ।

इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी में दोस्ती का आज भी मुकाम है,
फुरकतें भी लाज़िमी हैं दरमियाँ कभी-कभी ।

बेदिली की आग में वो छोड़ गए थे साथ जब,
सुनता हूँ सदाओं में वो सिसकियाँ कभी-कभी ।

डोलता नहीं हूँ देख शोखियों भरा ये दिल,
पर लुभायें ज़ुल्फ़ की ये बदलियाँ कभी-कभी ।

*************

मौलिक व अप्रकाशित

--हर्ष महाजन

Views: 716

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 8, 2018 at 10:52am

आ. हर्ष जी 
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।.. दीखती नहीं पढ़ सकते ..फिर सोचिये..
सादर 

Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 5:01pm

आदरणीय श्यामवीर जी आपकी आमद और पसंदगी का बहुत बहुत शुक्रिया ।

Comment by Shyam Narain Verma on April 7, 2018 at 3:42pm
बहुत सुन्दर ... सादर बधाई स्वीकारें आदरणीय
Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 3:01pm

आदरणीय सुशील सरना जी आदाब ।

आपकी पसंदगी के लिए दिली आभार और शुक्रिया ।

सादर ।

Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 2:57pm

आदरणीय समर जी आदाब । आपकी ग़ज़ल पसंद आयी तो सर लिखना सार्थक हुआ । जी हाँ आ.नीलेश जी की कही चीजों पर ध्यान रख दोनों अशआर में तब्दीली की है ।

आपकी आमद का बहुत बहुत धन्यवाद सर ।

सादर ।

Comment by Harash Mahajan on April 7, 2018 at 2:53pm

आदरणीय नीलेश सर आपकी आमद का दिली शुक्रिया और आभार ।

आपकी निशानदेही को देखकर तब्दीली की है ज़रा वक़्त मिले तो देखिएगा ।

वो दोनों अशआर में तब्दीली की है सर:....

इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं ये मर्ज़ियाँ कभी-कभी ।

.

डोलता नहीं हूँ देख शोखियाँ भरा भी दिल,
पर लुभाये ज़ुल्फ़ की ये बदलियाँ कभी-कभी ।

सादर ।

Comment by Sushil Sarna on April 7, 2018 at 2:38pm

बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,

रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।

ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,

डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।

अति सुंदर सृजन सर।

Comment by Samar kabeer on April 7, 2018 at 2:33pm

जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।

जनाब निलेश जी की बातों का संज्ञान लें ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on April 7, 2018 at 12:59pm

आ. हर्ष जी 
अच्छी ग़ज़ल हुई    है ///
.
पर्दे में है चाँद औ दहकते प्यार की धड़कनें,/// ये मिसरा लय में नहीं है 
.
चलती हैं खुदा की ऐसी मर्ज़ियाँ कभी-कभी.. ख़ुदा की मर्ज़ी तो हमेशा ही चलती है..अत: कभी कभी कहना ठीक नहीं है 
ग़ज़ल के लिए बधाई 
सादर 

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