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जितना बड़ा जो झूठा है वो, उतना ही अधिक चिल्लाता है
आवाज़ के पीछे चुपके से, रस्ते से यूँ भी भटकाता है
तुम बाँच रहे हो जो इतना, अज्दाद के किस्से मंचों से
उन किस्सों को सुनने वाला अब, पत्थर पे जबीं टकराता है
इंसान फ़कत है इक ज़र्रा, मिट जाएगा खुद इक झटके में
आकाश को छूती मीनारें, बेकार ही तू बनवाता है
है रंग बदलने में माहिर, हर शख़्स सियासत के अंदर
कुछ भी कहे वो लेकिन मतलब, कुछ और निकलकर आता है
इस लोक का तुझको क्या कोई, है ज्ञान ज़रा बतला बाबा!
अनदेखी कहानी गढ़-गढ़कर, परलोक मुझे दिखलाता है
अज्दाद - पुरखे
(मौलिक, अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आ. नवीन मणि त्रिपाठी जी
ग़ज़ल की सराहना के लिए आपका आभार आ. सुरेन्द्र नाथ जी
हौसला अफ़्ज़ाई के लिए शुक्रिया आ. तेजवीर सिंह जी
बहुत बहुत शुक्रिया आ. लक्ष्मण धामी जी
हौसला अफ्ज़ाई के लिए शुक्रिया आ. बृजेश कुमार जी
बहुत बहुत शुक्रिया आ. सोमेश कुमार जी
बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरम समर कबीर साहिब
बहुत बहुत शुक्रिया आ. अजय तिवारी जी
विलम्ब के लिए मुआफी चाहता हूँ निलेश भाई, हौसला अफज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया। ये ग़ज़ल मैंने तरही मुशायरे के बाद पूरी की थी इसलिए मुशायरे में शामिल न हो सका था।
साहब शेर दर शेर उम्दा ग़ज़ल हुई हार्दिक बधाई आपको ।
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