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20 मार्च "विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष 

याद आ रही है...

करीने से बँधी चोटियाँ

आँगन में खेलती बेटियाँ

गुड्डा-गुड़िया, गोटी-चिप्पी,

आइ-स्पाइस, छुआ-छुई

चंदा-चूड़ी, लँगड़ी-बिच्छी

 

याद आ रहा है...

गाँव का पुराना घर

घर के सामने खड़ा पीपल का घना पेड़

जो रोक लेता लू के थपेड़ो को

जैसे सहन पर बैठे हों दादाजी

रोक लेते बुरी बलाओं को

 

याद आ रहा है...

सुबह-सुबह तुलसी के चौरा पर

दादी माँ का जल चढ़ाना

फिर कुछ लोटा जल

आँगन के कोने में पड़े

मिट्टी के नाद में भर देना

 

याद आ रहा है...

भात बनाने से पहले माँ का

एक मुट्ठी कच्चे चावल

आँगन में बिखेर देना.. 

फिर...

न जाने कहाँ से आ जाता

गौरैयों का झुण्ड

चुग लेते वे चावल के दाने

जल भरे नाद में

जल-क्रीडा करते

 

अब तो शहर में छोटा सा घर

न वो घना पीपल का पेड़

और ना ही दादा-दादी

ससुराल चली गयीं बेटियाँ

नहीं आता वो गौरैयों का झुण्ड

 

आज माँ ने फिर से 

बिखेर दिया है बालकोनी में

कच्चे चावल के कुछ दाने

और रख दिया है पानी भरा पात्र

 

आहा ! यह क्या...

आ गयीं कुछ गौरैया

जैसे बड़े दिन बाद आयी हों

पीहर में बेटियाँ.

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 23, 2018 at 10:51am

आदरणीय बागी सर, आपने सही कहा। मैं ही किसी और धुन में था। क्षमा चाहता हूँ। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।

Comment by Shyam Narain Verma on March 22, 2018 at 10:50am
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति , बधाई आप को | सादर 
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 21, 2018 at 5:44pm

वाह आदरणीय क्या सुन्दर सार्थक चित्र उकेरा है...

Comment by Samar kabeer on March 20, 2018 at 11:11pm

उस महफ़िल में मैं भी कुछ देर के लिए आया था,मोबाइल के ज़रिये, हा हा हा..


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 20, 2018 at 11:05pm

आदरणीय मिथिलेश भाई, मायके, नैहर और पीहर एक दूसरे के पर्यायवाची हैं । रचना आप तक पहुँची इसके लिए बहुत बहुत आभार ।

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 20, 2018 at 11:00pm

जी, सचमुच..वो ढाई दिन इतने शानदार थे कि हमेशा याद आते हैं, राजीव भाई ने भी निस्वार्थ भाव से जो सहयोग किया उसके चलते वो भी बहुत महत्वपूर्ण हो गए हैं.
और वो रात वाली महफ़िल... आप, योगराज सर, मुनीश जी, समीर परिमल, राजीव भाई, रामनाथ भाई , आनंद भाई, गिरिराज जी...
क्या कहने वाह वाह  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 20, 2018 at 10:36pm

आदरणीय गणेश बाग़ी सर, बहुत शानदार और संवेदनशील कविता लिखी है आपने। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। कविता की अंतिम पंक्ति के संबंध में निवेदन है कि बेटियाँ पीहर से मायके या नैहर लौटती हैं। अतः अतः लौटने के संदर्भ में बहू का पीहर के साथ और बेटियों का नैहर या मायके साथ उल्लेख अधिक प्रभावकारी लगता है। या कहें 'पीहर को बेटियाँ' को 'पीहर से बेटियाँ' भी किया जा सकता है। सादर


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 20, 2018 at 10:34pm

आदरणीय निलेश भाई, रचना वचना पर बाद में, आपके साथ देहरादून और हरिद्वार में बितायी गयी क्वालिटी टाइम अभी भी जेहन में जिन्दा है, सच में आपसे मिलना एक उपलब्धि रही. 

निलेश भाई मंच से अनुपस्थिति मेरी मज़बूरी है नहीं तो इतना प्यारा परिवार से कौन दूर रहना चाहेगा.

आपको रचना अच्छी लगी यह जानकार मन प्रसन्न है, बहुत बहुत आभार. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on March 20, 2018 at 10:27pm

आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी, प्रणाम, कविता आपको अच्छी लगी यह जान मन प्रसन्न है, इस उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु हृदय से आभार.

Comment by Samar kabeer on March 20, 2018 at 10:26pm

'कुछ लोटे जल' कर देना मेरे नज़दीक मुनासिब है ।

रचना पर पुनः बधाई ।

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