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सोचता हूँ (ख्याल )

उस औरत की बगल में लेट कर
सोचता हूँ तुम्हारे बारे में अक्सर
रोज जिंदगी का एक पेज भरा जाता है
दिमाग अधूरे पेज़ पर छटपटाता है  

सोचता हूँ अगर वह औरत तुम होती
तो कहानी क्या इतनी भर होती !
या तब भी अटका होता किसी अधूरे पन्ने पर
भटक रहा होता पूरी कहानी की तलाश में |

सोचता हूँ इस कहानी के अंत के बारे में

सोचता हूँ उस अनन्त के बारे में

सोचता हूँ प्यार अगर अधूरेपन की तलाश है

तो ये कहानी कभी पूरी ना हो !

कई बार एक खौफनाक सपने से डर जाता हूँ

जब उस औरत को बगल में नहीं पाता हूँ
और सोचता हूँ वह भी मेरी तरह तो नहीं सोचती
वह भी किसी अधूरे पन्ने पर तो नहीं अटकी


सिहर कर मैं उसकी छाती से लिपट जाता हूँ
हर रात को मैं फिर दो टुकड़ों में बँट जाता हूँ

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अमुद्रित )
  

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Comment

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Comment by somesh kumar on March 8, 2018 at 6:31pm

शुक्रिया आ.  Samar kabeer जी 

Comment by Samar kabeer on February 25, 2018 at 3:29pm

जनाब सोमेश जी आदाब,सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

Comment by somesh kumar on February 24, 2018 at 7:24pm

thanks for your encouragment and giving your valuble feedback bhai SHYAM NARAIN VERMA G

Comment by Shyam Narain Verma on February 23, 2018 at 4:13pm
बहूत ही सुन्दर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर

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