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विज्ञान ??? ईश्वर !!! (व्यंग्य-रचना)

प्रभु ! तू बता अपनी
सच्चाई,
क्योंकि,तू अब नहीं बचेगा,
देख,मनुष्य ने ली है
अंगड़ाई.
क्या तू है ?
तेरा अस्तित्व है ?
देख,
विज्ञान आ गया है,
तेरा अस्तित्व,
हटा गया है.
तू खुद सोच,
मनुष्य लगाता है,
तेरे कार्यों में अड़चन,
वह तेरा करता है खंडन.
वह खुद ही लगा है,
बनाने,बिगाड़ने
सपनों को,अपनों को.
वह खुद ही बन बैठा है
भगवान ?
अगर तू है तो रुका क्यों है,
भाग जा,
जा ग्रहों पर छिप जा.
ना,ना,ना
वहाँ मत जाना,
देख,अब
आदमी के कदम,
थमेंगे नहीं,रुकेंगे नहीं,
वह तो ग्रहों पर
खाता है खाना.
अस्तु वहाँ छिपोगे तो,
पकड़े जाओगे,
कोई तेरी पूजा नहीं करेगा,
अपितु मारे जाओगे.
सोच खुद ही सोच,
मनुष्य कितना आगे निकल गया है.
वह कहता है कि
भगवान है झूठ,
कहीं उसका कोई
अस्तित्व नहीं,
विज्ञान ही है भगवान
सब कहीं.
तो फिर मैं तूझे
क्यों पूजूं ?
विज्ञान को ही पूजूंगा,
अभी नहीं,
उस दिन,
जिस दिन विज्ञान,
मौत को मार भगाएगा,
सब होंगे अमर,
किसी को तेरा नहीं होगा डर,
उस दिन,अहा उस दिन,
कितना खुश होऊँगा मैं,
खुशी,आनंद से,
झूम जाऊँगा मैं.
तब चिल्लाऊँगा,जोर जोर से,
मेरा प्रभु तो विज्ञान है,
और वैज्ञानिक हैं उसकी आकृति,
तब भाड़ में जाए तुम
और तेरी प्रकृति.
उस दिन हाँ उस दिन,
मैं तेरी पूजा करना,
बंद करूँगा,
देख हँस मत,
सिर्फ उसी दिन तक,
तुझे पूजता रहूँगा.

-प्रभाकर पाण्डेय

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Comment by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on July 6, 2010 at 10:27pm
AAPNE TO ''BHAGWAN'' AUR 'VIGYAN' KE BEECH ME ''INSAN'' KO FANSA DIYA .PANDEY JI ......BADHIYA AVM BHAV POORN RCHNA..!!

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 6, 2010 at 8:30am
उस दिन हाँ उस दिन,
मैं तेरी पूजा करना,
बंद करूँगा,
देख हँस मत,
सिर्फ उसी दिन तक,
तुझे पूजता रहूँगा.

वास्तव मे ईश्वर हँस ही रहा होगा, कि जो तुम आज जान रहे हो उसका निर्माण तो मैने युगो युगो पहले ही कर दिया था, तुम मनुष्यो को तो अभी जानकारी ही हो रही है वो भी अंशतः और उसपर इतना अहंकार, क्या होगा अगर मैं सिर्फ़ 2 मिनट के लिये आक्सीजन को रोक लू, तापमान मे 50 डिग्री की बढ़ोतरी कर दू , शायद यही कुछ सर्वशक्तिमान सोच रहे होंगे और हमारी नादानियो पर मुस्कुरा रहे होंगे, विज्ञान लाख तरक्की कर ले परंतु उस शक्तिशाली परम पिता परमेश्वर के अस्तित्व को नकार नही सकता,
बहुत बढ़िया रचना है प्रभाकर भईया,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on July 5, 2010 at 11:20pm
प्रकृति में मानव की दखलंदाजी बढ़ती ही जा रही है.....एक समय था जब मनुष्य चाँद पर कदम रख कर गौरवान्वित महसूस कर रहा था....आज चाँद पर कालोनियां बनाने की तैयारियां चल रही है.....वाकई में भगवान भी सोचते होंगे की मैंने ये इन्सान नामक क्या बला बनायीं है जो खुद मेरे ही अस्तित्व को नकार रहा है.....अपनी इस कविता के मध्यम से उन लोगों पर करारा तंज़ कर दिया है प्रभाकर जी आपने जो ईश्वर की प्रभुसत्ता को चुनौती देते नज़र आते है.......धन्यवाद

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