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ग़ज़ल - चाहे आँखों लगी, आग तो आग है.. // --सौरभ

२१२ २१२ २१२ २१२

 

फिर जगी आस तो चाह भी खिल उठी
मन पुलकने लगा नगमगी खिल उठी
 
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी
 
लौट आया शरद जान कर रात को
गुदगुदी-सी हुई, झुरझुरी खिल उठी
 
उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं
किन्तु आँखो में उमगी नमी खिल उठी
 
है मुआ ढीठ भी.. बेतकल्लुफ़ पवन..
सोचती-सोचती ओढ़नी खिल उठी
 
चाहे आँखों लगी.. आग तो आग है..
है मगर प्यार की, हर घड़ी खिल उठी
  
फिर से रोचक लगी है कहानी मुझे
मुझमें किरदार की जीवनी खिल उठी
 
नौनिहालों की आँखों के सपने लिये
बाप इक जुट गया, दुपहरी खिल उठी
*****************
-सौरभ

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Comment by Saurabh Pandey on October 8, 2017 at 5:46pm

आदरणीय मो. आरिफ़ जी, हौसलाअफ़ज़ाई का शुक्रिया. सहयोग बना रहे..
शुभ-शुभ

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 8, 2017 at 4:30pm

आ. सौरभ सर,
आपके अपने ही अंदाज़ की ग़ज़ल है ..हमेशा की तरह ख़ूब हुई है ...

अंतिम मिसरा 
.
एक बाप जुट गया, दुपहरी खिल उठी शुरुअ में २१२१ होने से बहर चूक रहा है ...
सादर 

Comment by राज़ नवादवी on October 8, 2017 at 4:11pm

वाह वाह आदरणीय सौरभ भाई, बहुत दिनों के बाद आपकी ग़ज़ल  पढ़ने को मिली है. सुन्दर रचना की प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें. सादर! 

Comment by Samar kabeer on October 8, 2017 at 3:19pm
जनाब सौरभ पाण्डेय साहिब आदाब,एक अर्से के बाद आपकी ग़ज़ल से रूबरू होने का मौक़ा मिला,अपने मख़सूस लब-ओ-लहजे में बहुत उम्दा ग़ज़ल कही आपने,सभी अशआर जगमगाते हुए महसूस हो रहे हैं,इस बढ़िया ग़ज़ल के लिये शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'उनकी यादों पगी आँखें झुकती गयीं'
इस मिसरे में 'पगी'शब्द का अर्थ मालूम नहीं मुझे इसलिये कुछ कहने में असमर्थ हूँ,'यादों','आँखें','गयीं'ये सारे शब्द बहुवचन हैं,तो 'पगी'?मार्गदर्शन अपेक्षित है ।
'है मुआ ढीठ भी..बे तकल्लुफ़ पवन'
इस मिसरे में 'मुआ'शब्द लखनऊ की बैगमाती ज़बान का है, इसे इस्तेमाल करने की कोई ख़ास वजह ?
'एक बाप जुट गया,दुपहरी खिल उठी'
इस मिसरे को अगर यूँ लिखें तो गेयता बढ़ जायेगी :-
'बाप इक जुट गया,दुपहरी खिल उठी'
Comment by SALIM RAZA REWA on October 8, 2017 at 2:16pm
आदरणीय सौरभ जी,
ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बधाई, आप की आमद से दिल बाग़ बाग़ हो गया,
Comment by Mohammed Arif on October 8, 2017 at 1:51pm
दीप-लड़ियाँ चमकने लगीं, सुर सधे..
ये धरा क्या सजी, ज़िन्दग़ी खिल उठी । वाह!वाह!! बहुत प्रासंगिक शे'र । इस शे'र क से दीपावली के आमद की आहट हो गई ।
दीप पर्व के पहले आपने बहुत अच्छी रंगोली रचा दी । भर शे'र में अलग रंग बिखेरा है आपने ।
हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें आदरणीय सौरभ पांडे जी ।

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