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तुम चली आना   ... 


जब 

दिन भर का
शेष
थोड़ा सा
उजाला हो
थोड़ी सी
सांझ हो
मेरे प्रतीक्षा द्वार पर
निस्संकोच
तुम चली आना

जब
थके हारे विहग
अंधकार में
विलीन होती
सांझ के डर से
अपने अपने
तृण निर्मित घोंसलों में
अपनी
चहचहाट के साथ
लौट आएं
तब

मेरी आशाओं के घरौंदों में
अपनी प्रीत का
दीप जलाने
निस्संकोच
तुम चली आना

जब
मेरी पलकें
प्रतीक्षा के बोझ से
बोझिल हो
मुंदने लगें
तुम
काल पराजित करती
अपनी स्वप्न गलबाहियों से
मेरी स्वप्न सुधा मिटाना
मेरी पलक देश में
विचरण करने
निस्संकोच
तुम चली आना

मैं देर तक
रजनी को
उजालों में जाने न दूंगा
काल को
श्वासों की देहरी
लांघने न दूंगा
बस
मेरा
इतना सा अनुरोध
मान लेना
मेरे आभास को
अपने विश्वास के
आलिंगन से
अमर प्राण देने
निस्संकोच
तु........म
च....ली
आ..ना

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on October 7, 2017 at 12:14pm

आदरणीय महेंद्र जी सृजन की मुक्त कंठ से प्रशंसा का हार्दिक आभार। इंगित त्रुटि से मैं पूर्णतः सहमत हूँ इसको अभी दुरुस्त कर पुनः प्रेषित करता हूँ।  इस हेतु आपका तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by Mahendra Kumar on October 6, 2017 at 9:13pm

आ. सुशील सरना जी, बढ़िया भावाभिव्यक्ति हुई है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.

"तुम भी मेरी 
आशाओं के घरौंदों में 
अपनी प्रीत का 
दीप जलाने 
निस्संकोच 
तुम चली आना"

यहाँ "तुम" की आवृत्ति दो बार हो रही है. देख लीजिएगा. सादर.

Comment by Sushil Sarna on September 30, 2017 at 7:27pm

आदरणीय उस्मानी साहिब , आदाब  .. सृजन के भावों की गहनता को आत्मीय मान  देने का तहे दिल से शुक्रिया।  सर इसे अतुकांत कविता ही कहेंगे।  इस शैली में बस किसी भाव के मूल बिंदु को विस्तार देते हुए अपने शब्दों में एक प्रवाह के साथ चरम तक ले जाना होता है। बस और कुछ विशेष नहीं। आपकी इस श्रद्धा का हार्दिक आभार। 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 29, 2017 at 11:21pm
बार-बार पढ़ने और पाठ करने का मन हो रहा है इस भावपूर्ण रचना का। अंतिम पंक्तियां भावनाओं के चरमोत्कर्ष पर ले जाकर झकझोर देतीं हैं। आपकी शैली की एक और बेहतरीन रचना के लिए सादर हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय सुशील सरना जी। जानना चाहता हूं कि इस तरह की शैली कविता कहलाती है या अतुकान्त या क्षणिका। मुझे ऐसा लिखना सीखने के लिए क्या क्या करना चाहिए पढ़ने के अलावा?

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