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ग़ज़ल

2122 1212 22

अब सुनाओ भी फैसला हमको।
जुर्म की दो कोई सज़ा हमको।

तुमको चाहा गुनाह था भारी,
खूब महँगी पड़ी वफ़ा हमको।

सोचते हैं कि अब किधर जाएँ,
रास्ता तो कोई दिखा हमको।

कुछ मुरव्वत जरा दिखा हम पर,
हर दफा तो न आजमा हमको।

हम वो हैं जो कभी नहीं टूटे,
चाहे जी भर के तू सता हमको।

मंजूषा मन

मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 447

Comment

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Comment by मंजूषा 'मन' on September 11, 2017 at 9:44am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय समर कबीर जी
Comment by मंजूषा 'मन' on September 11, 2017 at 9:43am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मुकेश जी
Comment by मंजूषा 'मन' on September 11, 2017 at 9:43am
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय ब्रजेश जी
Comment by Samar kabeer on September 7, 2017 at 11:27pm
मोहतरमा मंजूषा'मन'साहिबा आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by MUKESH SRIVASTAVA on September 7, 2017 at 4:41pm

nicee

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 7, 2017 at 10:13am
सुन्दर सरस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आदरणीया..

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"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार.. बहुत बहुत धन्यवाद.. सादर "
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"हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय। "
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"आदरणीय आदरणीय चेतन प्रकाशजी मेरे प्रयास को मान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। हार्दिक आभार। सादर।"
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"आदरणीया प्रतिभा जी, प्रदत्त चित्र को शाब्दिक करती मार्मिक प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक…"
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