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ग़ज़ल...वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

१२२२   १२२२ ​   १२२२    १२२२​
वही बारिश वही बूँदें वही सावन सुहाना है
तेरी यादों का मौसम है लबों पे इक तराना है

तुझी को याद करता हूँ तेरा ही नाम लेता हूँ
यही इक काम है बाकी तुझे अपना बनाना है

कभी जाये न ये मौसम बहे नैंनो से यूँ सावन
दिखाऊँ किस तरह जज्बात​ राहों में जमाना है

रही बस याद बाकी है यही फरियाद बाकी है
सुनाऊँ क्या जमाने को खुदी को आजमाना है

मिलन होता न उल्फत में कटेगी जिन्दगी पल में
ये साँसें हैं बिखर जायें अमर अपना फसाना है​
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 23, 2017 at 1:47pm
आदरणीय समर कबीर जी आपकी बारीक़ नज़र से गुजर के बड़ा शुकुन मिलता है।आपके निर्देशानुसार सुधार करता हूँ..सादर
Comment by Ravi Shukla on August 23, 2017 at 10:26am

आदरणीय बृजेश जी अच्‍छी गजल कही आपने दाद के साथ मुबाकर बाद पेश है आखिरी शेर में कुछ और बेहतर आप कर सकते है त्‍वरित सुझाव के तौर पर ये मिसरा देखिये

बिखर जाएगीं  सांसे पर अमर अपना फसाना है

इसी तरह तीसरे शेर के सानी मिसरे पर आप इस सुझाव पर भी विचार कर सकते है

दिखाऊँ किस तरह जज्बात​ हाइल ये जमाना है ।  त्‍वरित सुझाव मात्र है अगर उचित लगे तो  । सादर

Comment by Samar kabeer on August 22, 2017 at 10:18pm
जनाब बृजेश कुमार 'ब्रज'साहिब आदाब,उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
मतले के सानी मिसरे में 'लवों'को "लबों" कर लें ।
'ए साँसें हैं बिखर जाएँ अमर अपना फसाना है'
इस मिसरे में टंकण त्रुटि है शायद ?

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