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हैं वफ़ा के निशान समझो ना (प्रेम को समर्पित एक ग़ज़ल "राज')

२१२२ १२१२  २२

खामशी की जबान समझो ना

अनकही दास्तान समझो ना

 

सामने हैं मेरी खुली बाहें

तुम इन्हें आस्तान समझो ना

 

ये गुजारिश सही मुहब्बत की

तुम खुदा की कमान समझो ना

 

स्याह काजल बहा जो आँखों से

हैं वफ़ा के निशान  समझो ना 

 

बस  गए हो मेरी इन आँखों में

इनमें  अपना जहान  समझो ना

 

झुक गया है तुम्हारे कदमों में

ये मेरा आसमान समझो ना

 

खींच लाती कोई कशिश हमको   

रब्त है दरमियान समझो ना  

आस्तान =भगवान् की मूरती तक पंहुचने का द्वार 

कमान=हुक्म /आदेश 

---मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Niraj Kumar on August 22, 2017 at 6:23pm

जनाब समर कबीर साहब, आदाब,

'रोजे का दरवाजा' क्या होता है मै इससे वाकिफ नहीं हूँ. स्पष्ट कर सके तो मेहरबानी होगी.

ग़ालिब का एक ही शेर यह स्पष्ट करने के लिए काफी है कि दरवाजा और आस्तान दो अलग चीजें हैं इसमें दोनों का जिक्र एक साथ हुआ है :

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं 
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों 

 उर्दू शायरी में आस्तान का रिश्ता सर से, जबीं से, लबों से, और पावों से तो रहा है बाहों से नहीं रहा . 

सादर 

Comment by Tasdiq Ahmed Khan on August 22, 2017 at 6:14pm
मुहतर्मा राजेश कुमारी साहिबा ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं । शेर 4 का उला मिसरे की बह्र देख लीजिए । काजल तो काला ही होता है ,यह मिसरा एक वचन में है और मिसरा सानी बहु वचन में है (सियाह--121)
Comment by Ravi Shukla on August 22, 2017 at 5:31pm

आदरणीया राजेश दीदी बहुत बहुत बधाई इस बढि़या गजल के लिए । हमें भी इनमें  अपना जहान  समझो ना सही लग रहा है ।

Comment by Mohammed Arif on August 22, 2017 at 10:58am
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, बहुत ही उम्दा ग़ज़ल हुई है । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी अमूल्य राय दे चुके हैं । गौर करें ।
Comment by Samar kabeer on August 21, 2017 at 9:32pm
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'सामने हैं मेरी खुली बांहें
तुम इन्हें आस्तान समझो ना'
फिरोज़ुल लुग़त के हिसाब से 'आस्तान' का एक अर्थ रोज़े का दरवाज़ा भी होता है,इस लिहाज़ से शैर का मफ़हूम पूरी तरह स्पष्ट है,खुली बांहों को दरवाज़े से तशबीह बहुत शानदार है, इसके लिये अलग से दाद ।
इसके अलावा 'इनमें' को 'इनको'में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 21, 2017 at 8:53pm

आद० नरेंद्र सिंह जी आपका बहुत- बहुत शुक्रिया |

Comment by narendrasinh chauhan on August 21, 2017 at 6:26pm

आदरणीय खूब सुन्दर रचना।

Comment by Niraj Kumar on August 21, 2017 at 6:06pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी, 

'आस्तान' का अर्थ 'प्रवेश द्वार' मेरी नज़र से नहीं गुज़ारा. दहलीज, ड्योढ़ी या चौखट ही इसके सामान्य अर्थ होते है. विशिष्ट अर्थ में इसका प्रयोग खानकाहों के लिए होता है.

सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 21, 2017 at 5:39pm

आद० नीरज जी आपको ग़ज़ल पसंद आई बहुत बहुत शुक्रिया |आस्तान शब्द पर लिखने से पहले बहुत खोजबीन की अपने उस्ताद शायरों से भी मशविरा लिया इस शब्द को कई अर्थों में प्रयोग किया जाता है जैसे --प्रवेश द्वार , निवास ,महल , दहलीज किन्तु मुख्यतः यह मंदिर या मस्जिद में जाने से पहले अर्थात भगवान की पूजा घर में जाने से पहले जो उपर से गोलाकार प्रवेशद्वार होता है उसके लिए प्रयोग किया जाता है .मैंने इसी सन्दर्भ में प्रयोग किया है दो बांहे जब किसी से मिलने के लिए थोड़ी गोलाई लिए हुए खुलती हैं तो दिल जिसको पूजा घर का बिम्ब दिया है उस तक पंहुचने का प्रवेश द्वार प्रयोग किया है |आशा है मैं स्पष्ट कर  पाई |दूसरी बात इनको अपना जहां समझो या इनमे अपना जहां समझो दोनों के भाव में बहुत फर्क है |

Comment by Niraj Kumar on August 21, 2017 at 5:29pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी

खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. दाद के साथ मुबारकबाद.

'आस्तान' का सामान्य अर्थ 'चौखट' होता है इस नजरिये से दूसरे शेर पर शायद एक बार और निगाह डालने  की ज़रुरत है.

'इनमें  अपना जहान  समझो ना' को 'इनको अपना जहान  समझो ना' और 'खींच लाती कोई कशिश हमको' को 'खींच लाती है इक  कशिश हमको' करना कैसा रहेगा ?

सादर 

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