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आज कुछ यूँ हुआ कि ...

घोंसला टूटा गिरा था पेड़ के नीचे

एक नन्ही जान बैठी आँखें थी मींचे

उसकी माँ मुँह में दबाए थी कोई चारा

ढूँढती फिरती थीं नजरें आँख का तारा

हाथ मैंने जब बढाया मदद की खातिर

उसने समझा ये शिकारी है कोई शातिर

माँ हो चाहे जिसकी भी वो एक सी बनी

आज नन्हे पंछी की इंसान से ठनी

उसी टूटे नीड़ को रखा उठा फिर पेड़ पर

पंछी बनाते घोंसले इंसान तो बस घर..

सुबह आकर देखा तो हालात कल से थे

बारिश हुई थी और तिनके पेड़ के नीचे

ज़ब्त कर जज़्बात देखा डाल से ऊपर

बैठी थी वो माँ–बाप के संग कुछ टहनियों पर

माँ ने समझा आ गया फिर से शिकारी वो

करने लगी बाजीगरी मुझको डराने को..!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 4, 2017 at 12:35pm
हार्दिक आभार
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 4, 2017 at 11:52am
सुन्दर भावों का शानदार समावेश हुआ है..बधाई
Comment by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 3, 2017 at 9:15pm

सर मेरा मतलब भी 'साथ' से ही है। वो नन्हीं चिड़िया पेड़ की टहनियों पर अपने माँ - बाप के संरक्षण में पहुँच चुकी थी और उनके साथ सही सलामत थी।

Comment by Samar kabeer on August 3, 2017 at 6:16pm
'बैठी थी वो माँ-बाप के संग कुछ टहनियों पर'
इस पंक्ति में 'संग'शब्द का अर्थ 'साथ होता है,और 'बैठी थी'शब्द बता रहा है 'माँ',इस पर थोड़ा ग़ौर कीजियेगा ।
Comment by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 3, 2017 at 3:47pm

आदरणीय कबीर साहब, सादर नमन

यह कमेंट मैंने कल रात ही लिखा था किंतु न जाने वो कहाँ गुम हुआ, दिखाई नहीं दिया तो दोबारा लिख रहा हूँ -

प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन हेतु ह्रदय से आभार व्यक्त करता हूँ, आशा है भविष्य में भी लाभान्वित होता रहूँगा। प्रस्तुत रचना का अंत वैसा ही है जैसा की वास्तव में हुआ था, मैंने उसमें अलग से कुछ नहीं जोड़ा। ये घटना मेरे विद्यालय में घटित हुई थी जिसमें बुलबुल चिड़िया का बच्चा घोंसला समेत जमीन पर आ गिरा था। "बैठी थी वो माँ बाप के संग कुछ टहनियों पर" इसलिए लिखा क्योंकि वो आम का पेड़ था जिसकी एक पतली टहनी पर बच्चा और आस - पास की दो टहनियों पर माँ बाप बैठे थे।

आपने जिस सुधार (ज़ब्त कर जज़्बात) की सलाह दी थी वो मैंने कर लिया है।

Comment by Samar kabeer on August 2, 2017 at 10:14pm
जनाब श्याम किशोर सिंह जी आदाब,रचना बहुत उम्दा हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
रचना का अंत कुछ और बहतर होता तो ठीक लगता,एक दो बातों की तरफ़ ध्यान दिलाना चाहूँगा,'जज्ब कर ज़ज्बात' को "ज़ब्त कर जज़्बात"होना चाहिये,
'बैठी थी वो माँ-बाप के संग कुछ टहनियों पर'
इस पंक्ति में 'कुछ टहनियों पर'का क्या मतलब हुआ ?वो दोनों एक ही टहनी पर बैठेंगे,बहुत सी टहनियों पर कैसे ?

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