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ग़ज़ल : इस्लाह हेतू

1222  1222  1222     1222
नजर से दूर रहकर भी जो दिल के पास रहती है
कभी नींदें चुराती है कभी ख्वाबों में मिलती है. 

चमकना चाँद सा उसका मेरी हर बात पर हँसना
कहीं फूलों की नगरी में कोई वीणा सी बजती है. 

ये भोलापन हमारा है कि है जादूगरी उसकी
वफ़ा फितरत नहीं जिसकी वही दिलदार लगती है. 

कभी मैं भूल जाऊँगा उसे कह तो दिया लेकिन
जो दिल पर हाथ रक्खा तो वही धड़कन सी लगती है. 

तुम्हारा जो बचा था पास मेरे ले लिया तुमने
तुम्हारी प्रीत की खुश्बू अभी भी मुझमे बसती है. 

कभी जो मुड़ के देखोगे मुझे तो जान जाओगे
कि रिश्ता टूट जाने में कहीं तेरी भी गलती है. 


नीरज कुमार नीर

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Neeraj Neer on May 6, 2017 at 10:43pm

बहुत शुक्रिया जनाब समर साहब ... 


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Comment by गिरिराज भंडारी on May 6, 2017 at 8:25pm

आदरणीय नीरज भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Samar kabeer on May 6, 2017 at 4:11pm
जनाब नीरज जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
बाक़ी जनाब निलेश जी बता ही चुके हैं ।
Comment by Neeraj Neer on May 6, 2017 at 9:56am

आपका हार्दिक आभार निलेश जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2017 at 9:53am

आ. नीरज जी,
.

  • मिलती और रहती में ती शब्द को क्रिया रूप दे रहा है

  • मूल शब्द हैं मिल और रह...और इन  दोनों में काफ़िया नहीं बन रहा

  • रहती..कहती..सहती

  • मिलती..खिलती...आदि

Comment by Neeraj Neer on May 6, 2017 at 9:47am

मोहम्मद आरिफ साहब शुक्रिया 

Comment by Neeraj Neer on May 6, 2017 at 9:47am

आदरणीय निलेश जी आपका आभार. एक बार यहाँ भी इशारा कर दें तो मेहरबानी होगी . 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2017 at 9:37am

आ. नीरज जी 
रचना का स्वागत है....
मतले में काफ़िया ठीक नहीं है ..इस विषय पर ग़ज़ल की कक्षा में काफ़िये पर उपलब्ध आलेख पढ़ें ..
बारीक़ बातें बाद में होती रहेंगी..
.
सादर 

Comment by Mohammed Arif on May 6, 2017 at 8:16am
आदरणीय नीरज कुमार जी आदाब, बेहतरीन प्रयास । बधाई स्वीकार करें । गुणीजनों का इंतज़ार करें ।

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