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ग़ज़ल...कई शम्स उसने सँभाले हुये हैं

122 122 122 122
कई शम्स उसने सँभाले हुये हैं
वो जिसके करम से उजाले हुये हैं

चला जो सदा सत्य की लौ जलाये
उसी शख्स के पांव छाले हुये हैं

ये जिनकी तपिश से जले आशियाने
वो मुददे नहीं बस उछाले हुये हैं

कहीं दूध मेवा कहीं आदमी को
बमुश्किल मयस्सर निवाले हुये हैं

विसाले सनम के हसीं ख्वाब दिल से
कई साल पहले निकाले हुये हैं
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by गिरिराज भंडारी on May 5, 2017 at 8:13pm

आदरनीय बृजेश भाई , बहुर अच्छी गज़क कही है , हार्दिक बधाइयाँ । आदरणीय नीलेश भाई जीके विचारों से सहमत हूँ ... उस मिसरे मे अभी गुंजाइश है ,, और अच्छा हो सकता है , देखियेगा ।

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 5, 2017 at 4:54pm

आदरणीय ब्रिजेश जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुयी है , इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2017 at 8:35am

बहुत ख़ूब आ. बृजेश जी...
अच्छी ग़ज़ल के लिये बधाई ..
.
ये जिनकी तपिश से जले आशियाने
वो मुददे नहीं बस उछाले हुये हैं.... इसे और माँजे तो और निखरेगा 
सादर 

Comment by नाथ सोनांचली on May 5, 2017 at 3:41am
ब्रजेश कुमार ब्रज जी सादर अभिवादन, बेहद उम्दा अशआर, दाद के साथ मुबारकबाद कबूल करें।

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