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ग़ज़ल नूर की : इश्क़ हुआ है क्या?

22. 22. 22. 22. 22. 22. 2

तन्हा शाम बिताते हो
तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
मंज़र में खो जाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
.
बारिश से पहले बादल पर अपनी आँखों से,
कोई अक्स बनाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?

ज़िक्र किसी का आये तो फूलों से खिलते हो,
शर्माते सकुचाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
.
होटों पर मुस्कान बिना कारण आ जाती है,
बेकारण झुँझलाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?-
.
दरगाहों पर और मन्दिर में शीश झुकाते हो,
तावीज़े  बँधवाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
.
“नूर” तुम्हे अक्सर ख़ुद ही में उलझा देखा है
अच्छे शेर सुनाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?      
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 5, 2017 at 1:57pm

शुक्रिया आ. महेंद्र जी 

Comment by Mahendra Kumar on March 5, 2017 at 1:08pm
आदरणीय नीलेश जी, बहुत ख़ूब ग़ज़ल कही आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 4, 2017 at 8:45pm

कमजोरी तो ब्राह्मण मो बिरहमन लिखना भी मानी जा सकती है आदरणीय ...
कमी खोजने वालों का क्या .....

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 4, 2017 at 7:33am

आ. राघव जी ..
भाषा कोई स्थिर तालाब नहीं है ... एक बहती नदी है जो सतत नए शब्दों की उत्पत्ति करती रहती है..
आप जिसे बेबस शब्द कह रहे हैं वो संस्कृत के वश-विवश का अपभ्रंश मात्र है...
हो सकता है आने वाले वर्षों में बे-कारण भी उतना ही मानी हो जितना बेबस ..अत: मुझे जब भी इस प्रकार के प्रयोग का अवसर मिलेगा, मैं किसी भर्ती के शब्द को डालने की जगह कम प्रचलित शब्द अवश्य लूँगा...

सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 4, 2017 at 7:29am

शुक्रिया आ. सुरेन्द्र नाथ जी 

Comment by नाथ सोनांचली on March 4, 2017 at 6:27am
आदरणीय नीलेश जी सादर अभिवादन। बहुत ही खूबसूरत अशआर बने है, खास कर यह शैर

दरगाहों पर और मन्दिर में शीश झुकाते हो,
तावीज़े बँधवाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या

हर इश्क करने वाले की हर ऐडा को लिख डाला आपने, बधाई निवेदित है।
राघव जी के बेकारण शब्द पर बस इतना कहूंगा कि अकारण ही मुझे भी ज्यादा उचित लगता है, बेकारण की अपेक्षा। आप इसे एक पाठक के नजरिये से देखियेग, सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 3, 2017 at 6:49pm

आ. राघव जी,,
आप जिसे निदा साहब का सबसे कमज़ोर शेर कह रहे हैं अगर वैसा एक भी मैं कह पाया तो स्वयं को धन्य मानूँगा.
रही बात प्रयोगधर्मिता की तो वो पुरानी या नई पीढ़ी की छाप लेकर नहीं आती... किसी ने बीस बार किया हो कोई प्रयोग, मैंने जब पहली बार किया तो मेरे लिये नया अनुभव रहेगा... मेरा प्रयोग खपेगा या व्यर्थ जाएगा ये तो भविष्य तय करेगा..
और व्यर्थ भी रहा तो भी मुझे संतुष्टि होगी क्यूँ की मैं स्वांत: सुखाय ही लिखता हूँ ...
आप ने अपना कीमती वक़्त दिया इसके लिये बहुत बहुत धन्यवाद ...
आगे भी आप से सुझाव मिलते रहेंगे ऐसी अपेक्षा है..
सादर  

Comment by आशीष यादव on March 3, 2017 at 7:21am
I don't know more about ghazal. But this one is good.
Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 2, 2017 at 9:36pm

आ. राघव जी,

आप की शैली मुझे मंच पर उपस्थित किसी वरिष्ठ की याद दिलाती है :))..
लेकिन फिर भी आप के द्वारा उठाये गए प्रश्नों का जवाब देना ज़रूरी है..
ग़ज़लगोई चूँकि मेरा पेशा नहीं, शौक है इसलिए इस ग़ज़ल समेत मेरी सभी ग़ज़लें कामचलाऊ ही कही जा सकती हैं..
आप ने जिस बेकारण शब्द को बे-कारण करार दिया है उसे निदा साहब ने कुछ यूँ इस्तेमाल किया है..
.
उससे बिछड़े बरसों बीते लेकिन आज न जानें क्यूँ
आँगन में हँसते बच्चों को बेकारण धमकाया है...
.
शायद निदा साहब ने अकारण शब्द सीखा ही नहीं होगा या सिर्फ छन्द निबाहने के लिये इस शब्द का इस्तेमाल कर लिया होगा..
वाइज भी जब बाज़ार में हर शब्द के कई पर्यायवाची उपलब्ध हों तो कुछ चुनिन्दा शब्द शायद छन्द की मांग को पूरा करने के लिये ही लिये जाते हैं... ये ज़रूरत भी है और ख़ूबी भी...
आप को मिसरे गद्य सामान लगे इसे मैं बड़ी उपलब्धि मानता हूँ क्यूँ कि हर मिसरा एक वाक्य ही है ..जो एक निश्चित मात्रा क्रम को फॉलो करता है ...
मिसरे को छन्द-बद्ध वाक्य भी कहा जा सकता है .....
रही बात ग़ज़लियत की ..तो आपके सुझाए मिसरे में  'ही' भर्ती का शब्द है जिसे मैं सही नहीं मानता ...
ग़ज़ल आप तक पहुँच नहीं सकी इसका खेद है.
सादर 
  

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 2, 2017 at 6:21pm

शुक्रिया आ. राघव जी ...
आप की प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार रहेगा 

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