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एक चौथा बन्दर भी है
जिसने हटवा दिए हैं हाथ
उन तीनों बन्दरों के
आँख, कान और मुँह से
अब
वो सुन सकते हैं
बोल सकते हैं
देख सकते हैं
वह सब
जो चौथा बन्दर
सुनता है
बोलता है
देखता है
साथ ही
तीनों बन्दर
लगे हैं अपने जैसे
और भी बन्दर बनाने में
जो वही सुनें
वही बोलें
वही देखें
जो चौथा बन्दर
चाहता है
और जब
कोई बन्दर
कर देता है इंकार
उन तीनों जैसा
बनने से
तो वो तीनों बन्दर
उसकी पूँछ पकड़ कर
रखवा देते हैं उसका हाथ
उसी की आँख
कान
और मुँह पर!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by Mahendra Kumar on December 7, 2016 at 9:07am
रचना को पसंद करने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी। सादर।
Comment by Mahendra Kumar on December 7, 2016 at 9:05am
हार्दिक आभार आदरणीय डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी। सादर।
Comment by Mahendra Kumar on December 7, 2016 at 9:04am
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया कल्पना भट्ट जी। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 6, 2016 at 11:06pm
अद्भुत वाह चौथे बंदर की क्या खूब टांग पकड़ी है आपने समसामयिक स्थिति को क्या खूब शब्द प्रदान किए हैं आदरणीय आप की कविता पढ़कर मुग्ध हूं। इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
Comment by Samar kabeer on December 6, 2016 at 8:31pm
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत उम्दा और सार्थक कविता लिखी अपने,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
आपकी कविता पढ़ कर मुझे कुछ दिन पहले जनाब योगराज प्रभाकर साहिब द्वारा लिखित लघुकथा "चौथा बन्दर" याद आ गई ।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 6, 2016 at 7:12pm
बहुत बढ़िया यथार्थ पूर्ण समसामयिक परिदृश्य पर रचना हेतु सादर हार्दिक बधाई आपको आदरणीय महेन्द्र कुमार जी।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 6, 2016 at 5:46pm

वाह महेंद्र कुमार जी . नयी दृष्टि  सराहनीय है ,

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on December 6, 2016 at 5:42pm
चौथा बन्दर है बड़ा शानदार। आदरणीय बहुत सुन्दर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।

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