सब लोग तैयार हो रहे थे, पूरे घर में गहमागहमी मची हुई थी| बच्चों में भी बहुत उत्साह था, आज छुट्टी तो थी ही, साथ में दुर्गा पंडाल देखना और मेले का आनंद भी लेना था| रजनी ने भी अपनी चुनरी वाली साड़ी पहनी और शीशे के सामने खड़ी होकर अपने को निहारने लगी|
"माँ जल्दी चलो, पूजा को देर हो जाएगी", बेटे ने आवाज़ लगायी जो बाहर कार निकाल रहा था|
"आ रही हूँ, अरे अपने पापा को बोलो जल्दी निकलने के लिए", साड़ी सँभालते हुए रजनी कमरे से बाहर निकली|
"अच्छा किनारे वाला कमरा भी भिड़का देना, आने में तो देर हो जाएगी", रजनी ने आवाज़ लगायी|
"तुम लोग जाओ, मेरा सर दर्द कर रहा है| वैसे भी मुझे कुछ खास दिलचस्पी नहीं है इन पंडालों में", रवि की आवाज़ से रजनी चौंकी|
"पिछले साल तक तो बड़े खुश होकर जाते थे, इस बार क्या हो गया", रजनी ने कहा|
"बस यूँ ही, सर भारी है, तुम लोग जाओ और आराम से लौटना", रवि ने अंदर से ही जवाब दिया|
"चलो मम्मी, देर हो जाएगी, पापा का मन नहीं है तो जाने दो उनको", बेटे शोर करने लगे| रजनी उनके साथ निकल गयी|
रवि ने दरवाजा बंद किया और किनारे वाले कमरे में आ गया| माँ बिस्तर पर पड़ी हुई दरवाजे की ओर ही देख रही थी| छह महीने पहले आये लकवे के अटैक ने उसकी जबान और चलने फिरने की ताक़त छीन ली थी| रवि को देखते ही उसकी आँख में चमक आ गयी और उसने अपने हाथ उठाने की असफल कोशिश की|
"तुझे छोड़कर किसी और देवी के दर्शन करने कैसे जा सकता हूँ माँ", कहते हुए रवि उसके पास बैठ गया| कमरा एकदम से अगरबत्तियों की सुगंध से भर गया|
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आ अलका चंगा जी
बहुत ही मार्मिक लघुकथा ।इस माँ की पूजा से ही तो वो माँ भी प्रसन्न होंगी । बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आ.विनय जी
बहुत बहुत शुक्रिया आ नीता कसारजी
बहुत बहुत शुक्रिया आ समर कबीर साहब
बहुत बहुत शुक्रिया आ अर्पणा शर्मा जी, माँ को छोड़कर अन्य देवी की पूजा कहाँ तक सही है|
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