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जब ठहरना न मुनासिब हो तो चलते रहिये(तरही गज़ल)/सतविन्द्र कुमार

बह्र:2122,1122 1122 22

जब ठहरना न मुनासिब हो तो चलते रहिए
साथ चलके भी जमाने को' बदलते रहिए।  

रुत बदलती सी ये तबियत पे ही होती भारी
ठीक होगा यूँ अगर आप भी ढलते रहिये।

आग खामोश करा देती सभी  का जीवन
एक दीपक की' तरह खुद ही तो जलते रहिए।

वक्त आवाज खिलाफत में उठाने का है
जुल्म से दब क्युँ यूँ बस खुद ही में गलते रहिए।

ग़म मिला है तो ख़ुशी भी आ मिलेगी यारो
*हो के मायूस न यूँ शाम से ढलते रहिये*।

क्या मिला है जो रहे बनके यूँ शज़रे नफरत
बन मुहब्बत भी जरा सा ही तो पलते रहिए।

प्यार को मान लिया जब है खुदा राणा ने
बेवफाई से उसे फिर युँ न छलते रहिए।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on October 11, 2016 at 5:16pm
देवनागरी में उर्दू हिन्दी शब्दकोष मिलते है,इस के लिये जनाब रवि शुक्ल साहिब की मदद लीजिये ।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 9, 2016 at 12:38pm
आदरणीय समर कबीर साहब,मैं इस प्रयास को वाजिब वक्त देकर दुरुस्त करने की कोशिश करूँगा।सादर
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 9, 2016 at 12:37pm
आदरणीय सुरेश भाई जी,प्रयास को समय देकर हौंसलाफ़ज़ाई करने के लिए बहुत बहुत आभार।
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 9, 2016 at 12:35pm
आदरणीय समर कबीर साहब सादर नमन!उर्दू के कम ही शब्दों की जानकारी है,इसी कारण यह दिक्कत पेश आती है।क्या ऐसी कोई डिक्शनरी मिल सकती है जो देवनागरी में ही हो और उर्दू-हिंदी शब्दार्थ हों।मुझे उर्दू पढ़नी भी नहीं आती।आपके मार्गदर्शन एवं इस्लाह के लिए तहेदिल शुक्रगुज़ार हूँ।सादर
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on October 8, 2016 at 3:15pm
आदरणीय सतविंदर भाई जी सुन्दर प्रयास के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें । सादर ।
Comment by Samar kabeer on October 7, 2016 at 11:48pm
जनाब सतविंद्र कुमार 'राणा' जी आदाब ,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा हुवा है,बधाई स्वीकार करें, लेकिन यह ग़ज़ल कुछ और समय चाहती है ,मतले के ऊला मिसरे में 'न मुनासिब' सही नहीं है,सही शब्द है "ना मुनासिब"।

दूसरे शैर में 'तबियत' सही नहीं है,सही शब्द है "तबीअत"।

चौथे शैर में 'ख़िलाफ़त' सही नहीं है ,सही शब्द है "मुख़ालिफ़त" ।

"क्या मिला है जो रहे बनके यूँ शज़रे नफरत"

इस मिसरे को यूँ कर लीजिये :-

"क्या मिला है जो रहे बनके यूँ नफ़रत का शजर"

ऐसा इसलिये किया क्यूँकि 'शजर' में यहाँ इज़ाफ़त भली नहीं लगती ।

आपकी इस ग़ज़ल के मिसरों की बंदिश भी बहुत ढीली है,रवानी की कमी है,इस तरफ़ ध्यान दीजिये ।

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