ग़ज़ल :- पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे
पहरे शब्दों पर भी अब पड़ने लगे ,
घाव जो गहरे थे अब बढ़ने लगे |
हमने जब पूछा कि कैसे हैं जनाब ,
खामखा ही मुझसे वो लड़ने लगे |
यूं ग़ज़ल की महफ़िलें सजने लगीं ,
नीद में हम काफिये गढ़ने लगे |
गलतियाँ आकार जब लेने लगीं ,
दोष अपना मुझपे वो मढने लगे |
इस ग़ज़ल के शेर हैं सोये हुए ,
आप सोये शेर से डरने लगे |
जो दुआएं दे नहीं सकते मुझे ,
नाम मेरे मर्सिये पढ़ने लगे |
वक्त है जलती चिता और राख हम ,
अश्क क्यों फिर आँख से झरने लगे |
आओ उन पौधों को सींचें आज फिर,
वक्त से पहले ही जो झड़ने लगे |
नाव नन्हें नन्हें हाथों देखकर ,
गड्ढे सारे शहर के भरने लगे |
{अभिनव अरुण की डायरी से}
Comment
शशि जी हार्दिक आभार आपका !!आपका स्नेह मिलता रहे यही कामना है !!
आभार श्यामल जी आपका यहाँ आना और टिप्पणी देना ही अपने आप में सुखद है !!बहुत बहुत शुक्रिया !!!
हमने जब पूछा कि कैसे हैं जनाब ,
खामखा ही मुझसे वो लड़ने लगे |
आओ उन पौधों को सींचें आज फिर,
वक्त से पहले ही जो झड़ने लगे |
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