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ख़ामोशी
की चीख़
तलवार की
धार से
भी तेज़
होती है
कलेजा फट
जाता है जब
ये ख़ामोशी
रोती है
सन्नाटे की
तलाश में
सर पटक
कर सोती है
वहाँ भी
नींद में
तिसकार फटकार
की आवाज़ें
होती है
कहाँ जाए
ख़ामोशी
सुकून की
तलाश में
ये दुनिया
से दूर
अकेले ही
रोती है
मौलिक अप्रकाशित

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Comment

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Comment by S.S Dipu on September 25, 2016 at 11:37pm
Sushil sarna जी it means a lot to me the words coming from you
Thanks
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on September 21, 2016 at 8:16pm
आदरणीया दीपू जी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई प्रेषित है । सादर ।
Comment by Samar kabeer on September 21, 2016 at 6:03pm
मोहतरमा दीपू जी आदाब,अच्छी लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by S.S Dipu on September 21, 2016 at 2:49pm
Sushil sarna ji शिज्जु शकूर जी

यक़ीन मानिए आप सब की बधाई मेरी रचना को जो मिलती है उससे मेरा लिखने के जज़्बा में कयी गुना इज़ाफ़ा होता है । क्यूँकि मुझे हिंदी में इतनी पकड़ नहीं है जितनी आप सभी की है । मेरा background convent स्कूल का रहा है । please आप सभी आपका आशीर्वाद बनाकर रखिएगा और मेरी कविताओं को यूँ ही प्यार दीजिएगा । आभार
दीपु
Comment by Sushil Sarna on September 21, 2016 at 2:26pm

कहाँ जाए
ख़ामोशी
सुकून की
तलाश में
ये दुनिया
से दूर
अकेले ही
रोती है

वाह बहुत सुंदर अहसास पिरोये हैं आपने आदरणीया दीपू जी ... इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 21, 2016 at 1:58pm

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