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मसाला तो है ही नहीं! (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

स्मार्ट फोन के पटल (स्क्रीन) पर सोशल साइट की एक तस्वीर को देखकर रोहित ने अपने मित्र विशाल से कहा- "यह चित्र किसी फ़िल्म का हो, या सच्ची घटना का, तुम तो यह बताओ कि बीच सड़क पर बिखरे हुए काग़ज़ों व दस्तावेज़ों के बीच अकेला ये कौन बैठा हुआ है? अभागा या अभागिन? शोषित या शोषिता?"

"इसकी वेशभूषा, बैठने के अंदाज़ और घुटनों पर कसी हुई मांसपेशियों वाली भुजाओं की मुद्रा देखकर तो यह कोई दृढ़ संकल्पित, आंदोलित, कुछ परेशान सा युवक लग रहा है!"- विशाल ने उत्तर दिया।

"युवक नहीं, युवती है यार! कंधे तक की ज़ुल्फ़ें, पैरों और पोषाक से नहीं समझ पा रहे हो क्या?" -रोहित ने चुटकी लेते हुए कहा।

"पर ऐसे बाल और कपड़े तो आजकल के लड़कों के फैशन में भी हैं! मुझे तो यह युवक ही लग रहा है, बेरोज़गार या हताश !" विशाल ने चित्र को पुनः ग़ौर से देख कर कहा।

"नहीं, मुझे तो कोई पीड़ित युवती ही लग रही है!"

रोहित की बात से असहमत होकर विशाल ने चित्र में सड़क के किनारे खड़ी कार व लोगों का समूह देखते हुए कहा- "यदि युवती होती, तो भीड़ और अधिक होती, वह पुलिस वाला भी उसके नज़दीक़ कहीं होता!"

"नहीं मित्र, भीड़ तो निश्चित रूप से ज़्यादा होती, मीडिया व कैमरे भी होते, अगर इस युवती का पूरा शरीर यूं कपड़ों से ढका न होता! कुछ तो दिखता या रक्त-रंजित होता!" -रोहित ने चित्र के आकार को पटल पर बड़ा कर विशाल को दिखाते हुए कहा- "मसाला तो है ही नहीं!"

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on September 12, 2016 at 3:01pm
मेरी रचना पर अपने विचार साझा करते हुए अनुमोदन व हौसला अफ़ज़ाई हेतु तहे दिल से बहुत बहुत शुक्रिया मोहतरमा नीता कसार जी।
Comment by Nita Kasar on September 10, 2016 at 1:36pm
टी ०आर० पी० का खेल और दिन रात चलने वाली ब्रेकिंग न्यूज़ के लिये मसाला तो है ही नही,कथा के जरिये कटु व्यंग्य किया है आपने आज की व्यवस्था पर ।भले ही कितने बेरोज़गार ज़रूरतमंद परेशान हो किसी का क्या जाता है ।बधाई आपको आद०शेख शाहिद उस्मानी जी ।

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