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ग़ज़ल -तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें ( गिरिराज भंडारी )

तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें

1222   1222   122  

*****************************
ये रिश्ते भी न बदतर होके लौटें

तेरी ईंटें, न पत्थर हो के लौटें

 

ये चट्टानें , न ऐसा हो कि इक दिन

मैं टकराऊँ तो कंकर हो के लौटें

 

इसी उम्मीद में कूदा भँवर में

मेरे ये डर शनावर हो के लौंटें  

 

बनायें ख़िड़कियाँ दीवार में जब

दुआ करना, कि वो दर हों के लौटें

 

दिवारो दर, ज़रा सी छत औ ख़िड़की

मै छोड़ आया कि वो घर हो के लौटें

 

कुछ इक सूखी निगाहें ऐ ख़ुदा, मैं

रखूँ उम्मीद क्या , तर हो के लौटें ?


नहीं कुछ भी यक़ीं , पर भेजता हूँ

मेरे ये मसअले सर हो के लौटें

********************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on September 7, 2016 at 5:27pm
उम्दा ग़ज़ल के लिए दिल से दाद औ मुबारकबाद कबूल फरमाएँ आदरणीय गिरिराज सर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 4:26pm

आदरनीय समर भाई , आपने बिलकुल सही बात कही , रदीफ पसीना निकलवा दिया था , मतले और एक दो शे र ए बाद फँसा हुआ महसूस कर रहा था , लगभग एक महीना लग गया इस गज़ल में ।
हौसला अफज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया आपका । टंकण की गलती सुधार लूँगा , ध्यान दिलाने के लिये शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 4:23pm

आदरनीय आमोद भाई , उत्साहवर्धन और सराहना के लिये आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 4:22pm

आदरणीया राजेश जी , सुखन नवाज़ी और हौसला अफज़ाई का शुक्रिया ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 7, 2016 at 4:21pm

आदरनीय तेज़ वीर भाई , हौसला अफज़ाई के लिये शुक्रिया आपका ।

Comment by Samar kabeer on September 7, 2016 at 2:59pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,बढ़िया ग़ज़ल हुई है,बिम्बों के सहारे अच्छे क़ाफ़िए इस्तेमाल किये आपने,वरना रदीफ़ बहुत मुश्किल है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
चौथे शैर में रदीफ़ का 'हो' "हों"लिख दिया है, ज़रा देखें ।
Comment by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2016 at 1:57pm
दीवारों दर जरा सी छत ओ खिड़की ...वह्ह्ह सर आप की गजलों में जो अलग उडान पढने को मिलती है सच काबिले तारीफ़ है नमन और बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on September 7, 2016 at 11:44am

बनायें ख़िड़कियाँ दीवार में जब

दुआ करना, कि वो दर हों के लौटें----बहुत  सुंदर 

 

बहुत  खूब  उम्दा ग़ज़ल हुई है आद० गिरिराज जी बहुत बहुत बधाई 

Comment by TEJ VEER SINGH on September 7, 2016 at 10:06am

हार्दिक बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी। बेहतरीन गज़ल।

ये चट्टानें , न ऐसा हो कि इक दिन

मैं टकराऊँ तो कंकर हो के लौटें |

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