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बिना तेरे हर एक लम्हा मुझे दुशवार है जानाँ 
अगर ये प्यार है जानाँ, तो मुझको प्यार है जानाँ

हसीं चेहरे बहुत देखे फ़िदा होना भी मुमकिन था 
फ़िदा हो कर फ़ना होना ये पहली बार है जानाँ

हमें कहना नहीं आया ,और समझा भी नहीं तुमने 
मेरा हर लफ़्ज़ तुमसे प्यार का इज़हार है जानाँ

चलो रस्ते जुदा कर लें , जुदा रस्तों में खो जाएं
जो मंज़िल ही नहीं मिलनी , तो क्यूँ इसरार है जानाँ

खुदा का शुक्र है तुमने न अपनाया मेरे दिल को 
ना जाने कब ये रुक जाए , बहुत बीमार है जानाँ

- सालिम

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by शिज्जु "शकूर" on September 8, 2016 at 11:02am

अच्छी ग़ज़ल है जनाब सालिम शेख साहब, समर कबीर साहब ने तो ऐब की तरफ इशारा कर ही दिया है

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 7, 2016 at 10:21pm

अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय हार्दिक बधाई |

Comment by Samar kabeer on September 7, 2016 at 4:12pm
जनाब सालिम शैख़ साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है, दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
तीसरे शैर में शुतरगुरबा का ऐब आ गया है,देझियेगा ।
ग़ज़ल के साथ आपने अरकान भी नहीं लिखे,आइन्दा से लिख दिया करें,ये इस मंच का नियम है ।

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