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हैलो.." ट्रीन-ट्रीन की घंटी बजते ही स्नेहा फोन  उठाते हुए बोली
हैलो स्नेह! कैसी हो. बहुत व्यस्त हो क्या." उधर से बडे भैया की आवाज थी.
अरेभैया व्यस्त ही नही अस्तव्यस्त भी हूँ."
" क्यो क्या हुआ..."
"क्या बताऊँ  समझ नही पा रही. तुमने जो रिश्ता सुझाया था ना अपनी भांजी ले लिए कहती है प्रोफ़ाइल तो अच्छा है. मगर पाँच साल बडा है वो मेरे सामने अंकल लगेगा. आजकल तो एक साल मे ही गेनेरेशन गेप आ जाता है माँ. अब तुम ही  बताओ मैं तो थक गई हूँ समझा कर भी और..."
" बहना! इधर भी यही हाल है. सोमेश को कोई भी लड़की दिखाओ कहता है पापा! मुझसे पाँच- छह साल छोटी हो वरना शादी के एकाध साल मे ही वो आंटी दिखने लगेगी."
"सच! बहुत मुश्किल है दादू इस पीढी को समझाना."
"कोई ना छोटी संक्रमण काल है ये हमारी पीढी का."
ना तो  पुराना सहेजा जा रहा और  ना ही नई पीढी के साथ सामंजस्य बैठ रहा.

मौलिक एंव अप्रकाशित

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Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 29, 2016 at 9:37pm

अंतिम पंक्ति के द्वारा कमाल की बात कहलवा दी आपने आदरणीया  नयना जी, बहुत बधाई इस रचना के सृजन हेतु|

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on August 29, 2016 at 7:26pm

आ.प्रतिभा दीदी  आपने बिलकूल सही कहा हम जरुरतो के हिसाब से अपने मूल्य बदलते जा रहे है.आपका हौसला अफ़जाई के लिए आभार

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on August 29, 2016 at 7:24pm

आ.उस्मानी जी तहेदिल से शुक्रिया आपका. संपादन की तृटियो को आगे की रचनाओ मे ज्यादा ध्यान से सुधारने का प्रयत्न करूंगी. आपने बहूत ही सार्थक हायकू रचे है.

दर-असल सबसे ज्यादा भ्रम की स्थिती मे हमारी पीढी है जो आधुनिक(प्रगतिशील) तो कहलाना चाहती है किंतू  फ़िर गिरते मूल्यों को देख फ़िर एक कदम पिछे खिंच लेती है, बहरहाल आपने रचना को दिल से समय दिया इस हेतू पुन: आभार

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on August 29, 2016 at 7:05pm

आ.राजेश दीदी आपने रचना को सराह कर मेरा उत्साहवर्धन किया है.आभार आपका

Comment by नयना(आरती)कानिटकर on August 29, 2016 at 6:52pm

आ.समर कबीर साहेब सलाम वाले कूम . रचना पर पहली उपस्थिती के लिए दिल से शुक्रिया.

Comment by pratibha pande on August 29, 2016 at 9:21am

तथाकथित आधुनिक समाज की सोच अधकचरी होती जा रही है  अपनी सहूलियतों के हिसाब से  जीवन मूल्य  बदले जा रहे हैं  ... कथा का शिल्प  कसा हुआ है और अपना मर्म संप्रेषित करने में पूरी तरह सफल है ....  बधाई प्रेषित है आपको आदरणीया नयना जी 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 28, 2016 at 11:15pm
आपकी प्रस्तुति से संबंधित कुछ हाइकू लिखने का प्रयास किया है, सादर अवलोकनार्थ-

टूटती शाखें
संस्कृति संस्कार की
पश्चिमी आँधी.
*

पीढ़ी-अंतर
पाश्चात्य संक्रमण
मतांतरण
*
फैशन कीड़ा
आन-बान या शान
विदेशी बीड़ा
*
लफ़्ज़ों की चोट
ख़ामोशियों के ज़ख़्म
भाव विस्फोट
*
__शेख़ शहज़ाद उस्मानी
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 28, 2016 at 10:45pm
प्रस्तुतीकरण ज़रा गंभीर हो सकता था।
Comment by Dr. Vijai Shanker on August 28, 2016 at 10:43pm
आदरणीय सुश्री नयना ( आरती ) कानिटकर जी , अच्छी कहानी लिखी , शीर्षक भी सटीक है।
वास्तव में संस्कार विस्मृत हो रहे हैं , किसी भी संक्रमण में संस्कार ही संभाले रहते हैं , पर हमारे यहां संक्रमण का अंतराल एक युग जैसा हो गया है।
सम्प्रति , बहुत बहुत बधाई , आपको , सादर।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on August 28, 2016 at 10:34pm
इस बार तो आपने ग़ज़ब कर दिया बेहतरीन कथानक पर लघु लघुकथा रच कर। बहुत ही समसामयिक ज्वलंत मुद्दे को बेहतरीन कथ्य सम्प्रेषित करती रचना में उठाकर! तहे दिल से बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आपको आदरणीया नयना आरती कानिटकर जी। बस सम्पादन में ज़रा चूक हो गई है। अंतिम वाक्य क्या अंतिम संवाद में सम्मिलित है? विराम चिन्ह टंकण त्रुटियां भी रह गईं हैं। 'जनरेशन गैप ( पीढ़ी-अंतराल)' को सही कर दीजिएगा।

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