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पीर पराई बूझता,है सच्चा इंसान
दर्द लगे सबका जिसे,अपने दर्द समान
अपने दर्द समान, दूर उसको वह करता
जाता खुद को भूल,देख औरों को मरता
लगता उसका जोर,बचाने में भी भाई
हर अच्छा इंसान,समझता पीर पराई।

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आस लगाए जो रहें,करें नहीं कुछ कर्म
बनें रहें बस आलसी,नहीं उन्हें है शर्म
नहीं उन्हें है शर्म,रहें पुरषार्थ भुलाकर
जो देखें बस बाट, हाथ पर हाथ चढ़ाकर
उनका राखा राम,नहीं जिनको श्रम सुहाए
बिना करे कुछ कर्म,रहें जो आस लगाए


मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 27, 2016 at 4:04pm
आदरणीय गिरिराज जी सादर आभार।मैंने परिष्कार का प्रयास किया है।आप और आदरणीय अशोक कुमार रक्ताले जी कृपया पुनः नज़र दाल कर मार्गदर्शन कर कृतार्थ करें।

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Comment by गिरिराज भंडारी on July 26, 2016 at 5:22pm

आदरनीय सतविन्द्र भाई , अच्छी कुंडलिया रची है आपने दिल से बधाइयाँ आपको । आदरणीय अशोक भाई की बातों का ख्याल कीजियेगा ।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on July 26, 2016 at 6:25am
अनुमोदन एवं मार्गदर्शन के लिए बहुत बहुत आभार आदरणीय अशोककुमार रक्ताले जी। मैं संशोधन का का सयंत प्रयास करूँगा। सादर
Comment by Ashok Kumar Raktale on July 25, 2016 at 10:26pm

आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी सादर, अच्छे छंद रचे हैं. दुसरे छंद की एक पंक्ति //नहीं कभी श्रम सुहाए//छोड़कर मात्रिक शिल्प कसा हुआ है. किन्तु कथ्य बहुत कमजोर है. 'हरन' जैसे शब्दों का प्रयोग और भी निराश करता है. सादर,

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