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नशीली आग़ोश ....

अरसा हुआ तुमसे बिछुड़े हुए 

ख़बर ही नहीं
हम किस अंधी डगर पर
चल पड़े
हमारी गुमराही पर तो
कायनात भी खफ़ा लगती है

बाद बिछुड़ने के
मुददतों हम
आईने से नहीं मिले
ख़ुद अपनी शक्ल से भी हम
नाराज़ लगते हैं


तुम्हें क्या खोया
कि अँधेरे हम पर
महरबान हो गए
यादों के अब्र
चश्मे-साहिल के
कद्रदान गए
दरमानदा रहरो की मानिंद
हमारी हस्ती हो गयी

इश्क-ए-जस्त की फ़रियाद
करें भी तो किससे


दिल बेदर की दीवारों में
कैद हो गया

अब शब की ख़बर नहीं
सहर भी जाने कब गुजर जाती है
तुमसे मिलने में
तारीकियों की साज़िश है
जाने किन सुलगते ख़्वाबों की
चंद साँसों में आतिश है


जाने कब वो आहट होगी
जो मुझे मेरेअफ्सुर्दा
लम्हों की क़बा से
रिहा कराएगी
वो नशीली आग़ोश
इस मर्गे-बदन को
ज़िंदगी दे जाएगी

दरमानदा=भटका हुआ , रहरो=मुसाफ़िर,
जस्त =चोट ,मर्गे-बदन=बदन की मौत

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on July 20, 2016 at 10:04pm

आदरणीय समर कबीर साहिब आपकी स्नेहिल आत्मीय प्रशंसा मुझे सदा नए सृजन के लिए उत्साहित करती रहती है। अपने मोहक शब्दों द्वारा प्रस्तुति का मान बढ़ाने का हार्दिक हार्दिक आभार।  आदरणीय प्रस्तुति में चश्मे-साहिल से मेरा अभिप्राय आँखों के किनारों से था और उसमें भी परोक्ष रूप से आँखों में छुपे सागर के किनारों से था। मैंने अपने भाव को इन शब्दों में पिरोने की कोशिश की है। यदि भाव प्रदर्शन में कोई त्रुटि नज़र आ रही हो तो कृपया मार्गदर्शन कर बन्दे को अनुग्रहित करें।  सादर  .... 

Comment by Samar kabeer on July 20, 2016 at 6:16pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत जज़्बाती अतुकांत कविता लिखी है आपने वाह बहुत सुंदर,दिल से बधाई स्वीकार करें ।
"चश्मे साहिल"का अर्थ "साहिल की आँख"लिया है या कुछ और कृपया बताने का कष्ट करें ।
Comment by Sushil Sarna on July 20, 2016 at 2:37pm

आ. अशोक रक्ताले जी भाई साहिब प्रस्तुति को अपने शीरीं लफ़्ज़ों से इज़्ज़त बख्शने का तहे दिल से शुक्रिया। 

Comment by Ashok Kumar Raktale on July 20, 2016 at 1:47pm

जाने कब वो आहट होगी
जो मुझे मेरेअफ्सुर्दा
लम्हों की क़बा से
रिहा कराएगी
वो नशीली आग़ोश
इस मर्गे-बदन को
ज़िंदगी दे जाएगी.........वाह ! वाह ! क्या खूब भावपूर्ण सृजन है.

आदरणीय सुशील सरना साहब सादर नमन, बहुत सुंदर अतुकांत की प्रस्तुति.बहुत-बहुत बधाई.सादर.

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