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ग़ज़ल - मुहब्बत मेरी बेनवा ही सही

122/122/122/12

मुहब्बत मेरी बेनवा ही सही
तुम्हारी नज़र में ख़ता ही सही

चलो इश्क़ में कुछ किया तो सही
दुआ जो नहीं, बद्दुआ ही सही

है जितनी भी, जैसी भी, जी जाइये
भले ज़िंदगी बेमज़ा ही सही

कहाँ है वो, कैसा है, किस हाल में
न मंज़िल मिले तो पता ही सही

चलो आओ थोड़ा सा रुक लें यहाँ
अभी के लिए मरहला ही सही

हमें रौशनी की ज़रूरत नहीं
अँधेरा घना तो घना ही सही

कई बार लोगों से ये भी सुना
नहीं जो सनम तो ख़ुदा ही सही

यही क़ाश कह पाता जीते जी मैं 
बुरा हूँ अगर तो बुरा ही सही

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on June 23, 2016 at 8:40pm

आदरणीय आशुतोष जी, तहेदिल शुक्रिया.. आभार!!

Comment by Mahendra Kumar on June 23, 2016 at 8:40pm

ग़ज़ल को पसंद करने के लिए आपका हृदय से धन्यवाद आदरणीय कान्ता जी!

Comment by Dr Ashutosh Mishra on June 23, 2016 at 1:33pm

आदरणीय महेंद्र जी ..इस उम्दा ग़ज़ल के लिए ह्रदय से बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by kanta roy on June 23, 2016 at 11:12am
बहुत खूब लिखा है आपने आदरणीय महेन्द्र जी । गजल अच्छी बनी है । बधाई आपको ।
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on June 21, 2016 at 4:46pm
आदरणीय श्री महेंद्र कुमार जी बहुत ही सुन्दर रचना है । बधाई हो ।
Comment by Mahendra Kumar on June 21, 2016 at 2:44pm
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण जी!
Comment by Shyam Narain Verma on June 21, 2016 at 11:11am
बहुत उम्दा ... बहुत बहुत बधाई

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