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आज का सूरज नया तू सींच ले (नवगीत 'राज ')

मुक्त कर तम से जकड़ती मुट्ठियाँ

भोर की पहली किरण को भींच ले

व्योम से तुझको पटक कर 

पस्त करके होंसलो को

चिन रही है गेह तुझमे

भावनाएँ हीन गुपचुप

मार सूखे का हथौड़ा

तोड़ कर तेरी तिजौरी

बाँध खुशियों की गठरिया

जा रहा है मेघ छुप छुप  

भेद बादल की गगरिया

अपने हिस्से की ख़ुशी तू खींच ले

भान तुझको ही नहीं है

छटपटाहट की जमीं के  

 गर्भ में आकार लेती   

 तल्खियों की बेल शापित

जो सुखाती जा रही है  

ख्वाहिशों की क्यारियों को  

खुद तुझे करना पड़ेगा

हिम्मतों का बीज रोपित

भाग्य का पौधा उगाने

आज का सूरज नया तू सींच ले  

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Shyam Narain Verma on June 20, 2016 at 4:35pm
बहुत खूबसूरत रवां नवगीत है बहुत बहुत बधाई आपको   सादर 
Comment by TEJ VEER SINGH on June 20, 2016 at 2:00pm

हार्दिक बधाई आदरणीय राजेश कुमारी जी! बेहतरीन  सार गर्भित प्रस्तुति!

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