महीन है विलासिनी
महीन हैंं विलासिनी तलाशती रही हवा, विकास के कगार नित्य छांटते ज़मीन हैं.
ज़मीन हैं विकास हेतु सेतु बंध, ईट वृन्द, रोपते मकान शान कांपते प्रवीण हैं.
प्रवीण हैं सुसभ्य लोग सृष्टि को संवारते, उजाड़ते असंत - कंत नोचते नवीन हैं.
नवीन हैं कुलीन बुद्ध सत्य को अलापते, परंतु तंत्र - मंत्र दक्ष काटते महीन हैं.
मौलिक व अप्रकाशित
रचनाकार.... केवल प्रसाद सत्यम
Comment
आ० श्याम नारायण भाई जी, आपका तहेदिल से आभार. सादर
आदरणीय सौरभ सर जी को सादर प्रणाम! सबसे पहले मैं समय के अभाव और फिर जब भी समय मिला तो नेट की समस्या रही . इन कारणों से मैं पोस्ट पर उपस्थित नहीं हो सका, जिसके लिये आप सभी से क्षमा चाहता हूं. सर जी, सापके कथन में कहीं कुछ तो होता है. जिसे मैं गम्भीरता से समझने की कोशिश भी सरता हूं. जहां तक इस पोस्ट की बात है, तो इसे मैंने कई बार पढ़ा मुझे यह रचना पूर्णतया परिपक्व लगी. हां, यह छंद अद्भुत और विलक्षण ही बन पड़ा है चूंकि इस रचना को मैंने एक ही सांस में, एक ही बार में सम्पूर्णता प्रदान की. इसमेंं प्रत्येक शब्द स्वयं कर्ता, कर्म,क्रिया, विशेषण व विशेष्य हैं जिनके कारण ही कुछ भ्रम हो सकता है. इसके अतिरिक्त भी एक-एक शब्द के कई-कई अर्थ निकल रहे हैं. इस प्रकार अलंकारो की भी कमी नहीं है.
१] हांं, मैंने सोचा था इस पर अच्छे कमेंट्स मिलेंगे.
२] मेरे लिये अच्छे कमेंट केवल १.आ० प्रभाकर जी, २. वीनस केसरी भाई ३. या आपका इंतजार रहता है.
३] मेरे समझ में बात नही आई....जिन्हे छंद अच्छे लगे उन्हे भी हतोत्साहित किया गया...?
४] //रसात्मकं काव्यं// को नही समझा गया.
5] मेरी कविता पर कोई समीक्षा नियमानुसार नही किया गया.
6} आप की व्यथा को मै नहीं समझ सका.
7] कविता का यथार्थ आशय न तो समझा गया न ही उसे सामने लाया गया.
8] इसके बावजूद भी आप रचनाकार से क्या चाहते है..?
9} आभार व्यक्त करे..या गलती मान ले. हां गलग्ती भी हो सकती है? लेकिन उसे किस आधार पर सुधार किया जाये..?
१०]......कृपया स्पष्ट करें....सादर
आदरणीय गिरिराज भाई जी, भाई केवल प्रसाद जी की इस प्रस्तुति के सापेक्ष ही सारी चर्चा हो और उसी आलोक में मंच पर प्रस्तुत हुई रचनाओं पर टिप्पणियों का स्तर समझा जाये.
केवल प्रसाद भाई मेरे लिए भी अपरिचित नहीं हैं. उनसे जब भी मिला हूँ, जितनी बार मिला हूँ या उनसे जब भी बातें की हैं, उनकी आँखों और उनकी वाणी में अपने और इस मंच के लिए मैंने अपार सात्विक भाव ही महसूस किया है. यह तो हुई व्यक्तिगत आचरण और आत्मीय भावदशा की बात. लेकिन हम सभी इस मंच के माध्यम से एक दूसरे को मात्र और मात्र साहित्य के कारण जानते हैं. इसी साहित्य और रचनाधर्मिता के कारण हमारा व्यक्तिगत संबन्ध भी लगातार प्रगाढ़ होता गया है. अतः यदि साहित्यकर्म के क्रम में मूलभूत विन्दु ही हाशिए पर जाते दिखें, तो हमारा सचेत होना ही आवश्यक नहीं बल्कि, यथोचित रूप से आग्रही हो जाना भी उतना ही आवश्यक है. हम सभी रचनाकार हैं. और रचनाकर्म करते अब एक अरसा भी हो गया है. हमने रचना प्रस्तुतीकरण के क्रम में आवश्यक सभी विन्दुओं पर खूब-खूब चर्चाएँ की हैं और खुल कर चर्चाएँ की हैं. इस मंच पर हमारा प्रारम्भिक दौर वह भी रहा है जब हम इस मंच को चौबीस घण्टों मे करीब दस-दसघण्टे या कई सूरतों में चौदह-पन्द्रह घण्टे दिया करते थे. उसका प्रतिफल भी हमें सकारात्मक ही मिला है. उसी बिना पर हमारा यह भी मानना है कि रचनाकर्म से भी अधिक महत्त्वपूर्ण रचनाओं की समझ हुआ करती है. यदि हम किसी रचना के मूल को समझ लें तो हमारा काम करना सहज भी हो जाता है, सरल भी हो जाता है.
रचनाकर्म की प्रक्रिया सोच-विचार, भाव-दशा, भावबोध, तदनुरूप शब्द-चयन, शिल्पगत तैयारियाँ, विधाजन्य अभ्यास, शब्दों का प्रभावी प्रयोग और प्रस्तुतीकरण में सुरुचिपूर्णता इन आठ विन्दुओं से हो कर गुजरती है. शब्दों का प्रभावी प्रयोग वाला विन्दु ही किसी रचना की संप्रेषणीयता का निर्धारण करता है. रचनाएँ इसी संप्रेषणीयता के कारण ही ग्राह्य हुआ करती हैं. कोई रचना मात्र शिल्प या अपने शब्दों से नहीं समझी जाती, न मान्यता पाती है. बल्कि, देखा ये जाता है कि वह कितनी संप्रेषणीय है. इसमें कोई शक नहीं है, कि यह सम्प्रेषणीयता पाठकों की अपनी जाती समझ पर भी निर्भर करती है. कि, वह पाठक स्वयं कितना सचेष्ट है. अन्यथा अच्छी-भली रचना का एक पाठक कबाड़ा निकाल सकता है. लेकिन, यह बात अलग है.
आदरणीय गिरिराज भाई जी, उपर्युक्त विन्दुओं को देखें, तो किसी रचना के लिए सार्थक वाक्य विन्यास और उपयुक्त शब्द प्रयुक्ति तो मूलभूत आवश्यकताएँ हैं. इनके बिना तो रचना ’भाषायी’ ही नहीं हो पाती है. हम सम्प्रेषणीयता की बात तो इसके बाद करते हैं. इस रचना के संदर्भ में मेरा प्रश्न तो सार्थक वाक्य-सांयोजन को लेकर ही था. अन्यथा मैं और आप हिन्दी में लिखे किसी वाक्य को नहीं समझते, ऐसा तो नहीं हो सकता न ?
आगे, आदरणीय, मेरी आपसे करबद्ध प्रार्थना है, कि आप मेरे कहे में अन्यथा अर्थ न देखें. मंच पर यदि प्रस्तुत हुई रचनाओं के माध्यम से रचनाएँ, रचनाकार और इन सबसे आगे साहित्य का कोई भला नहीं हो पा रहा है तो सारी कवायद बेअसर है, बेकार है. फिर हमारी टिप्पणियों का कोई अर्थ नहीं रह जाता. हम किसी को प्रसन्न करने केलिए तो टिप्पणी कर नहीं रहे हैं.
पुनः, आदरणीय, न भाई केवल प्रसाद जी मुझसे दूर हैं, न आप. इसी क्रम में, आदरणीया राजेश कुमारीजी मुझसे उम्र, अनुभव, समझ और सामाजिकता से बहुत बड़ी हैं. लेकिन जिस केयरफ़्री अंदाज़ और अपनापन के साथ मैं उनसे व्यवहार करता हूँ, वह उन्हीं की उदारता और आत्मीयता के कारण संभव हो पाता है. लेकिन, आचरण और व्यक्तिगत सम्बन्धों के ये सारे विन्दु रचनाकर्म के कारण ही हैं. अतः हम किसी रचनाकार को भ्रम में न रहने दें. रचनाकर्म के सापेक्ष जितनी ही समझ हमारे पास है, शत-प्रतिशत सचबयानी के साथ टिप्पणी करें. यही इस मंच के होने का मतलब होगा और इन्हीं विन्दुओं के सापेक्ष इस मंच की सार्थकता बनी रहेगी.
आगे, आपको मेरे कहे से जो आत्मीय कष्ट हुआ है, उसके लिए मैं हृदयतल से क्षमा-प्रार्थी हूँ. लेकिन पुनः कहूँगा, आदरणीय, यहाँ कुछ भी व्यक्तिगत नहीं था. हम और आप जैसे रचनाकर्मियो से यह मंच प्रस्तुत हुई रचनाओं के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट वैचारिकता चाहता है.
सादर
आदरणीय केवल प्रसाद जी की रचना जब पोस्ट हुई थी मैं भी लपका था यहाँ. किन्तु दो तीन बार पढने पर भी जब कुछ समझ नहीं आया तो खाली हाथ लौट गया. मुझे इंतज़ार था किसी ऐसी प्रतिक्रिया का जो कथ्य को समझ पाने में मेरी मदत करे. अब रचनाकार का इंतज़ार है. सादर.
आदरणीय सौरभ भाई , आपकी निराशा का कारण मै बना , इसका ये जान के ह्र्दय दुख से भर गया , आप वो आखरी इंसान हैं जिन्हे मै अपनी वजह से निराश और उदास देखना चहता था । कारण आपका ज्ञान , आपकी लगन , मंच के प्रति आपके भाव और आपसे मिली आत्मियता भी है । पर क्या करूँ ?
अभ्यास शिल्प सिखा सकता है , समझ नही दे सकता , समझ तो अनुभव देता है , और ये जग जाहिर है कि साहित्यिक अनुभव मेरा न के बराबर है । मै कभी अपनी कमियों के लिये तर्क नही देता हूँ , मै मानता हूँ , और यथा संभव सुधार करता हूँ , लेकिन सुधर सकने वाली कमजोरियाँ जियादा तर शैल्पिक ही रहीं है ।
उम्र या वरिष्ठता समझादारी का सबूत नहीं होतीं । कई जगहों पर ( फोन मे भी ) मैने अपनी अनुभव हीनता और अज्ञानता आपसे स्वीकार की है , केवल इसी लिये कि मुझे आपकी उम्मीदें मेरी ताक़त से जियादा लगती थीं । मुझे इस बात की पीड़ा है कि मै फिर भी आपको निराशा से नहीं बचा सका ।
'' जिस समय मुझे कार्यकारिणी मे लिया जा रहा था और फोन से आ. योगराज भाई ने सूचना दी तो मेरा जवाब क्या था , अगर न बातायें हों तो कभी पूछियेगा , वही बात मैने अभी उन्हे भोपाल प्रवास में भी उन्हे फिर से कही है , आपसे विनती है कि , आप उनसे ज़रूर पूछियेगा ।'' कुछ बातें आम न हों तो जियादा अच्छा है , इसलिये बाक़ी कभी आपसे फोन मे बात करूँगा । सादर
आदरणीय गिरिराज भाईजी और आदरणीया राजेश कुमारीजी, आप दोनों की जवाबी टिप्पणियों से स्पष्टतः घोर निराशा हुई है. मन मंच पर पाठकीयता के स्तर और इसके प्रति समझ को लेकर वस्तुतः बहुत दुखी है आज.
हिन्दी को एक भाषा के तौर पर व्यापक होने के पूर्व क्षेत्रीय एवं आंचलिक भाषाओं की पद्य रचनाएँ ही उपलब्ध थीं और वही हिन्दी के प्रारम्भिक काल में हिन्दी भाषा का प्रतिनिधित्व भी करती थीं. ऐसा कई बार होता कि विद्यापति (मैथिली), मीरां (राजस्थानी), तुलसी (अवधी), सूर (व्रज), भारतेन्दु (व्रज) आदि-आदि की रचनाएँ अलग-अलग क्षेत्रों के भाषा-भाषियों के लिए सहज समझना कठिन क्या समस्या हुआ करती थी. तो लोग उनके अर्थ पूछते थे कि नहीं ? यदि मुझे कोई रचना किसी कारण से समझ में नहीं आयी, तो, भले ही वह अत्यंत उच्च कोटि की हो, क्या उसका रसास्वादन करने से मुझे वंचित रहना चाहिए ? या मुझे खुल कर नहीं पूछना चाहिए ? यदि बिना जाने बूझे मैं उसे ’अच्छा’ या ’सुन्दर’ कहता हूँ, तो यह मेरी कैसी पाठकीयता है ? इससे किसी रचनाकार या इस मंच का कैसा भला हो रहा है ?
आदरणीया राजेश कुमारी जी, मैंने इस प्रस्तुति पर अपनी पहली टिप्पणी में ही कह दिया है, कि ’लघु-गुरु’ की विभिन्न आवृतियों में प्रमाणिका, पंचचामर और अनंगशेखर छन्द होते हैं. तो फिर छन्द को लेकर कोई असमंजस होना नहीं चाहिए था. और छन्द के गण या उसकी मात्रिकता तो मात्र फ़ॉर्मेट हुआ करती हैं. असली काव्य-सृजन तो भाव, उनके निरुपण हेतु शब्द और उनकी सार्थक तथा तार्किक व्यवस्था से हुआ करता है. यदि शब्दों का भावजन्य अर्थ ही स्पष्ट न हो तो वह कैसी रचना है ? क्या इस पर प्रश्न करना किसी रचनाकार के साथ बिगाड़ करना होगा ?
हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका .. यह कैसी पंक्ति है ? अवश्य ही, ऐसी आवृति हरिगीतिका छन्द की शुद्ध मात्रिकता है. लेकिन क्या ऐसी कोई पंक्ति किसी छान्दसिक रचना की पंक्ति हो सकती है ? कुछ भी फ़ॉर्मेट में होगा तो हम उसके ’वाचन-प्रवाह’ (?) पर वाह-वाही कर देंगे ?
इस मंच पर हम वरिष्ठ सदस्य हैं. हमारे ऊपर दायित्व है. इसका हम व्यक्ति-निर्पेक्ष हो कर निर्वहन करें. ऐसा करना ही मेरी समझ से सही साहित्य-संवर्धन होगा, सही रचनात्मकता होगी.
सादर
आ० सौरभ जी ,आपने बिलकुल सही कहा इस छंद में मैं भी अर्थ ढूँढती रही सब ऊपर से निकल गया इसी लिए सिर्फ प्रवाह अर्थात गेयता को लेकर प्रतिक्रिया दी.चूंकि पंचचामर छंद पर मैंने भी कलम चलाई है किन्तु ये कुछ अलग लगा मन में सोचा भी की इस छंद पर भी प्रयास होना चाहिए सिर्फ इस बात को लेकर सुन्दर छंद कहा है अर्थ की बाबत आप कह ही चुके थे जिसका उत्तर आ० केवल जी दे ही देंगे और देना चाहिए भी इस लिए दुबारा नहीं लिखा |किन्तु ये सच है की इस का अर्थ हम भी सुनना चाहेंगे जो हमारे दिमाग में भी घुस नहीं रहा है |
आदरणीय सौरभ भाई , मै व्यक्तिगत तौर अपने विषय मे ही कह रहा हूँ , और ये उचित भी है --
मै भी रचना को समझ नही पाया हूँ , लेकिन मै ये कहने लायक खुद को नहीं समझता । ऐसी प्रतिक्रिया का अधिकार उसी का होता है जो हर एक रचना को समझ पाने की हैसियत रखता है । ऐसी प्रतिक्रिया दे कर जवाब आयी प्रति प्रतिक्रिया का जवाब मै नही दे सकता । वस्तुतः मै खुद मे अभी वैसी समझ नही पाता । इसीलिये मै केवल यह कह के रिक गया कि पढ़ने में रचना अच्छी लगी । ( जिसका आशय गेयता और प्रवाह से है )
ऐसी स्थिति में प्रतिक्रिया को और विस्तार देना मेरे लिये मुश्किल था , और है । पूरी तरह समझ कर तौल के प्रतिक्रिया देने के योग्य मै अभी नही हूँ ।
सादर
आदरणीय गिरिराज भाईजी और आदरणीया राजेश कुमारी जी, मैंने भाई केवल प्रसाद जी से इस प्रस्तुति को लेकर प्रश्न किया है. भाई केवल प्रसाद जी का दुबारा आना अभी नहीं हुआ है. अतः, वही प्रश्न आप दोनों से भी मैं सादर कर रहा हूँ. मुझे इस प्रस्तुति का निहितार्थ स्पष्ट नहीं हो रहा है. निहितार्थ न सही, आप दोनों ने इस प्रस्तुति के वाचन से जो कुछ समझा है और तदनुरूप बधाइयाँ दी हैं, उस बिना पर शब्दार्थ ही स्पष्ट कर सके, तो महती कृपा होगी.
सादर
आदरणीय केवल भाई , विधान का ज्ञान नही है मुझे पर रचना पढ़ने मे बहुत सुन्दर लगी । हार्दिक बधाइयाँ ।
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