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अपना मकां बना जाता है ....

अपना मकां बना जाता है ....

कितना अजीब होता है
उससे अपनापन निभाना
जो न होकर भी
सबा की मानिंद
करीब होता है

ये दिल
अपने रूहानी अहसास को
बड़ी निर्भीकता से
उस अदृश्य देह को कह देता है
जिसे देह की उपस्थिति में
व्यक्त करने में
इक उम्र भी कम होती है

हम उसे कह भी लेते हैं
और उसकी
अदैहिक अभिव्यक्ति को
बंद किताबों में
सूखते गुलाबों की
गंध की तरह
पढ़ भी लेते हैं

वो न होकर भी
इतना करीब होता है
कि उसकी साँसों की गर्मी
दैहिक साँसों को
महसूस होती है
बदन पर उसके लम्स
रेंगते से महसूस होते हैं

ये कैसी दीवानगी होती है
कि कोई दर्द बनकर
दिल में समा जाता है
अदैहिक उपस्थिति से
दैहिक अनुपस्थति का
वहम मिटा जाता है
लम्हा लम्हा घटती साँसों को
जीने की सदा दे जाता है
सच ! जाने वाला जाता कहाँ है
वो तो रूहानी कबाओं में
अपना मकां बना जाता है

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on June 7, 2016 at 11:13am

आदरणीय  Shyam Narain Verma    जी प्रस्तुति की सराहना के लिए हार्दिक आभार। 

Comment by Shyam Narain Verma on June 6, 2016 at 4:49pm
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 

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