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दिल-ऐ-बिस्मिल में ...

दिल-ऐ-बिस्मिल में ...

कुछ भी तो नहीं बदला
नसीम-ऐ-सहर
आज भी मेरे अहसासों को
कुरेद जाती है
मेरी पलकों पे
तेरी नमनाक नज़रों की
नमी छोड़ जाती है
कहाँ बदलता है कुछ
किसी के जाने से
बस दर्द मिलता है
गुजरे हुए लम्हात की मरकदों पे
यादों के चराग़ जलाने में
और लगता है वक्त
लम्हा लम्हा मिली
अनगिनित खराशों को
ज़िस्म-ऐ-ज़हन से मिटाने में
अपनी ज़फा से तुमने
वफ़ा के पैरहन को
तार तार कर दिया
आरज़ू के हर अब्र को
शर्मसार कर दिया
स्याह रात में
तारे तो आज भी टूटते हैं
मगर दिल में अब उनसे
किसी मन्नत की ख़्वाहिश नहीं उठती
अब शब-ऐ-हिज़्राँ
करवटों में गुजरती है
यादों के जज़ीरों पर
कोई आशना सी परछाईं
रक़्स करती है
चराग़-ऐ-शरर
तारीकियों से बात करती है
हर सू इक चुप सी
महसूस होती है
अब दिल-ऐ-बिस्मिल में भी
कोई शोर नहीं होता
हर अहद दम तोड़ देती है
सायों का जिस्मों पर जोर नहीं होता
उम्र गुज़र जाती है
किसी के करीब जाने में
मगर जाने वाले पे
किसी का जोर नहीं होता

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 460

Comment

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Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 10:08pm
मेरे कहे को इज़्ज़त देने के लिये आपका शुक्रिया ।
Comment by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 9:05pm

आदरणीय सौरभ सर आपका आदेश सर आँखों पे। मैं इस रचना को पुनः संशोधित कर अनुमोदनार्थ प्रेषित करता हूँ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on June 3, 2016 at 7:43pm

आदरणीय सुशील सरना जी, आप अपनी इस रचना मे स्वयं ही संशोधन कर, इसके पुनः अनुमोदित हो जाने की प्रतीक्षा करें

सादर

Comment by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 7:04pm

पाठक मित्रों से अनुरोध ...

कृपया आ. समर साहिब के सुझाव को अमल में लाते हुए अनुरोध है कि निम्न पंक्तियों को इस प्रकार पढ़ें :

ज़िस्म-ऐ-ज़हन से मिटाने में ... (जिस्म-ओ-ज़हन से मिटाने में )
अब शब-ऐ-हिज़्राँ ... (शब-ए-हिज़्राँ)
अब दिल-ऐ-बिस्मिल में भी ... (दिल-ए-बिस्मिल)

धन्यवाद

Comment by Sushil Sarna on June 3, 2016 at 6:57pm

आदरणीय समर कबीर साहिब आदाब प्रस्तुति रुहानी तारीफ़ का दिल से शुक्रिया। आप का सुझाव सर माथे ... आपने बिलकुल सही फ़रमाया .... मैं अपनी मूल रचना में इस सुधार को समाहित कर लूँगा। आपकी सूक्ष्म दृष्टि और अमूल्य सुझाव का पुनः आभार।

Comment by Samar kabeer on June 3, 2016 at 2:44pm
जनाब सुशील सरना जी आदाब,हमेशा की तरह खूबसूरत और शानदार रचना हुई है, दिल से बधाई स्वीकार करें । 'जिस्म-ए-ज़हन से मिटने में'इस पंक्ति को इस तरह लिखें"जिस्म-ओ-ज़हन से मिटाने में"
एक बात और इज़ाफ़त का इस्तेमाल में 'ऐ'की जगह सिर्फ़ "ए",लगाया करें ।

कृपया ध्यान दे...

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