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प्रिय से रँगवावन को चुनरी

प्रिय से रँगवावन को चुनरी,
मन मोद लिए मुसकाय चली।
सब छाड़ि जहाँ के लाज सखे!
भरि थाल गुलाल उड़ाय चली।
पट पीतहि लाल हरा रँग से,
मन प्रेमहि रंग रँगाय चली।
नव यौवन के मद से सबके,
मन में मदिरा छलकाय चली।।1।।

सुंदर पुष्प सजा तन पे,
लट-केश -घटा बिखराय चली है।
अंजित नैन कटार बने,
अधरों पर लाल लुभाय चली है।।
अंगहि चंदन गंध भरे,
मदमत्त गयंद लजाय चली है।
हाय! गयो हिय मोर सखे!
कटि जूँ गगरी छलकाय चली है।।2।।

रचना-रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by रामबली गुप्ता on May 12, 2016 at 5:35pm
रचना की आत्मीय प्रसंशा के लिए हृदयतल से आभार आदरणीय सुशील सरना जी एवं आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 11, 2016 at 1:46pm

आदरणीय रामबली जी, दोनों सवैया पद सुन्दर है हार्दिक बधाई.

Comment by Sushil Sarna on May 9, 2016 at 7:46pm

हाय! गयो हिय मोर सखे!
कटि जूँ गगरी छलकाय चली है।।2।।

वाह आदरणीय वाह प्रेम रास में डूबी इस प्रस्तुति की जितनी भी तारीफ़ की जाए कम है। शब्दों का अलंकारिक प्रयोग इस के सौंदर्य को और भी सुंदर बना रहा है। हार्दिक हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।

Comment by रामबली गुप्ता on May 9, 2016 at 6:05pm
बहुत बहुत आभार आदरणीय समर कबीर जी
Comment by Samar kabeer on May 9, 2016 at 6:02pm
जनाब रामबली गुप्ता जी आदाब,बहुत ख़ूब वाह, इस सुंदर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।

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