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ग़ज़ल-इस्लाह के लिये

22-22-22-22-22-22-222
मेरे शब्दों को तुम अपनी ख़ुश्बू सा महका दो तो।
मेरे छंदों को तुम अपनी पायल सा खनका दो तो।।

ये जो मनमोहक सी तेरी चाल में इक चञ्चलता है।
अधरों से छू कर ग़ज़लों को, हिरनी ज़रा बना दो तो।।

रेशम सी आवाज़ का ज़ादू, इन भावों में जगा ज़रा।
सुर सरगम का गहना इनको, प्रिये आज पहना दो तो।।

हर्फ़ बिछे हैं कागज़ पर सब, प्राण हीन तन के जैसे।
इन काली रेखाओं को भी, ज़िंदा आज बना दो तो।।

क्यों कहती हो प्रीत नहीं जब, झूठ बोलना नहीं पता।
अपनी आँखों की भाषा का, भाव आज समझा दो तो।।

मौलिक-अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 3, 2016 at 11:04am

// मत्ले में "अका" काफ़िया होने के बावजूद, आगे पूरी ग़ज़ल में "आ" काफ़िया लेने पर स्वीकार्यता होती है। कई उदाहरण बड़े शायरों के हैं//

अरे लानत भेजिये भाई, ऐसे बड़े शायरों को ! कौन हैं ये ? अरूज़ न संभाल सकने की कमियों को कैसे-कैसे आवरण दिये जाते हैं ? भाई, ये तो वही बात हुई जो सूरदास कह गये हैं - परम गंग छोड़ दुरमति कूप खनावे ! 

परम गंगा के पास का रहवैया निर्बुद्धि ही होगा जो कुआँ खुदवा कर प्यास बुझाने की बात करेगा. भाई, आप ओबीओ पर हैं ! 

शब्द प्रयोग एक बात है. और अरुज़ को निभाना और उसके प्रति स्ट्रिक्ट रहना एकदम से दूसरी बात. 

:-)))

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 3, 2016 at 10:37am
आदरणीय सौरभ सर सुझाव उत्तम है, किन्तु इस मुद्दे पर इसके पहले भी दो रचनाएँ मैंने इस पद्धति पर लिखी थीं, उसमें भी मैंने जवाब में लिखा था, दर असल-

मत्ले में "अका" काफ़िया होने के बावजूद, आगे पूरी ग़ज़ल में "आ" काफ़िया लेने पर स्वीकार्यता होती है। कई उदाहरण बड़े शायरों के हैं।

यद्यपि ग़ज़ल की "स्ट्रिक्ट" पद्धति के संदर्भ में यह एक दोष है किन्तु प्रचलन के संदर्भ में मान्य है।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 2, 2016 at 11:20pm

भाई पंकज जी, इस ग़ज़ल का काफ़िया ही दोषयुक्त हो गया है. इता अपनी जगह, आ की मात्रा की जगह ’अका’ है काफ़िया.. आगे अन्य बातें बाद में

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on May 1, 2016 at 4:49pm
आदरणीय नीलेश सर आपने सही कहा, दूसरे व तीसरे शेर में शतरगुर्बा दोष है। सादर धन्यवाद
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2016 at 11:53am

सुंदर ग़ज़ल के लिए बधाई ..
मतले में महका और खनका काफ़िया आने से इता दोष लग रहा है मुझे..समर कबीर सर की राय ले लें तो प्रकाश पड़े. 
.
रेशम सी आवाज़ का ज़ादू, इन भावों में जगा ज़रा।
.
ये जो मनमोहक सी तेरी चाल में इक चञ्चलता है।... उपरोक्त दोनों मिसरे अपने सानी के साथ शतुर्गुरबा का आभास दे रहे हैं..
पुनरावलोकन आवश्यक है ..
सादर 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 28, 2016 at 3:04pm
आदरणीय रवि सर सादर आभार। ग़ज़ल पर आप का आशीर्वाद पाकर अच्छा लगा। सादर प्रणाम
Comment by Ravi Shukla on April 28, 2016 at 12:35pm

आदरणीय पंकज जी अच्‍छी ग़ज़ल कही है आपने इसके लिये हार्दिक बधाई स्‍वीकार करें । 

हर्फ़ बिछे हैं कागज़ पर सब, प्राण हीन तन के जैसे।
इन काली रेखाओं को भी, ज़िंदा आज बना दो तो।। इस शेर का भाव बहुत अच्‍छा लगा । बधाई । 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 27, 2016 at 4:06pm
आदरणीय सुशील सरना सर ग़ज़ल आपको पसंद आयी, अच्छा लगा। बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 27, 2016 at 4:04pm
आदरणीय श्याम नारायण सर बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 27, 2016 at 4:02pm
आदरणीय मनोज भाई सादर आभार

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