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वफा उस पार से रखते मगर इस पार गद्दारी - गजल - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222 1222 1222 1222

कहाँ तक  नाव  जाएगी करे पतवार गद्दारी

गजल लय में रहे कैसे करें असआर गद्दारी ।1।

भले कहना सरल है ये यहाँ हर नींव पक्की है

सलामत  छत  रहे  कैसे  करे  दीवार  गद्दारी ।2l

कहा करते हैं दुर्जन भी ये तो तहजीब का फल है
सुहाती है किसी  को  ढब  किसी  को भार गद्दारी ।3l

न जाने यार क्या होगा चमन में हाल फूलों का
अगर करने  लगे यूँ  ही  कसम  से खार गद्दारी ।4l

जुड़े जब स्वार्थ ही केवल सियासत और कुर्सी से
मिटा  देती  दिलों  से तब  वतन का प्यार गद्दारी ।5l

हमेशा खून में जज्बा वतन पर मरने मिटने का
सिखाई  सिर्फ  जाती  है  किसी  को  यार  गद्दारी ।6l

कलंकित कोख कर देंगे वतन को बेच कर देखो
मिलाना  दूध  में अपने  नहीं  तुम  नार  गद्दारी ।7l

वफा हनुमान सी हो तो वतन महफूज रहता है
मगर  रावण  को  भी  देती  हमेशा  हार  गद्दारी ।8l

न जाने अब हवाओं में घुला कैसा है विष लोगों
वफा उस  पार से  रखते  मगर  इस पार गद्दारी ।9l

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

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Comment by रामबली गुप्ता on April 10, 2016 at 2:15pm
वाह बहुत ही सुंदर ग़ज़ल हुई है आदरणीय।
आदरणीय गुमनाम सर की आशंका निर्मूल नही है।
Comment by gumnaam pithoragarhi on April 10, 2016 at 1:27pm

भाई जी अच्छी ग़ज़ल हुई है ............. मगर आपने मतले में जो काफिया लिया है उसे बाद में नहीं निभाया है ................. क्या मैं सही हूँ 

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