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माँ ! तुम यहीं कहीं हो

माँ ....
मैं तुम्हें खोज लूँगा
तुम यहीं कहीं हो
मेरे आस -पास .... ॥

आपकी अस्थियां
प्रवाहित कर दी थी मैंने
गंगा में ॥
भाप बन कर उड़ी
गंगा -जल
और फिर बरस कर
धरती में समा गई

मैं सुबह उठकर
धरती को प्रणाम करता हू
इसे चन्दन समझ
माथे पर तिलक लगाता हू ॥

ऐसा कर
आपका
प्यार और वात्सल्य
रोज पा लेता हू .. माँ ॥
-------------बबन पाण्डेय

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Comment by baban pandey on June 21, 2010 at 6:03am
Julie JI aur Babita Gupta ji ..padhe aur comment karne ke liye aapka aabhari hu .
Comment by Babita Gupta on June 20, 2010 at 2:54pm
Maa tujhey Pranam, ess desh key mitti key har kan mey maa hai, bahut badhiya kavita likhey hai Baban sir jee,

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 20, 2010 at 11:32am
मैं सुबह उठकर
धरती को प्रणाम करता हू
इसे चन्दन समझ
माथे पर तिलक लगाता हू ॥
बब्बन भइया माँ के सम्मान मे लिखी गई कविता बहुत ही अच्छी बनी है, बहुत उम्द्दा सोच है,
Comment by Admin on June 19, 2010 at 5:51pm
बहुत ही खुबसूरत कविता दिया है बब्बन भाई, धरती को प्रणाम कर आप एक साथ दो दो माताओ को प्यार दे रहे है, एक बेहतरीन रचना, धन्यवाद आपको,

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 19, 2010 at 12:28pm
बबन भाई, दिवंगत माँ को किसी बेटे की तरफ से इस से बेहतर श्रधान्जली और कोई नहीं हो सकती ! में इस काव्य कृति का शुमार आपकी बेहतरीन रचनायों में करता हूँ जो किसी पत्थर दिल इंसान कि आँखों में भी आंसू ला सकती है ! ह्रदय को द्रवित कर देने वाली इस कविता के लिए बहुत बहुत साधुवाद है आपको !

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