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लघुकथा : आस्तीन का साँप (गणेश जी बागी)

“मिस्टर सिंह, आप और आपकी टीम विगत छः माह से उस खूंखार आतंकवादी को पकड़ने में लगी हुई है, किन्तु अभी तक आपकी प्रगति शून्य है.”

“सर हम लोग पूरी निष्ठा और ईमानदारी से इस अभियान में लगें हैं, मुझे उम्मीद है कि हम शीघ्र सफल होंगे.”

“आई. बी. वालों ने भी सूचना दी थी कि वो पड़ोसी मित्र देश में छुपा हुआ है, फिर प्रॉब्लम क्या है ?”

“सर, यदि वो पड़ोसी देश में छुपा होता तो हम लोग उसे जिन्दा या मुर्दा दो दिन में ही पकड़ लेते,
लेकिन प्रॉब्लम तो यह है कि ....”

“क्या प्रॉब्लम है मिस्टर सिंह ?”

“सर....... वो आतंकवादी अपने ही देश में..........”

(मौलिक व अप्रकाशित)
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Comment

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Comment by kanta roy on March 6, 2016 at 8:33pm

वाह ! क्या  खूबसूरत लघुकथा बनी है ये ! कथ्य  बानगी तो यहां देखते ही बनती है।  बहुत -बहुत बधाई आपको इस सार्थक लघुकथा के लिए आदरणीय गणेश जी 'बागी ' जी। 

Comment by Neeraj Neer on March 6, 2016 at 8:23pm

बहुत सुंदर भाव ..... गहरे अर्थ .... हार्दिक बधाई आदरणीय .... 

Comment by Dr. Vijai Shanker on March 6, 2016 at 7:47pm
" अपने ही देश में , अपनों के बीच में छिपा है ........ " समस्या तो यहीं आती है।
बधाई , आदरणीय गणेश जी बागी जी , इस सामयिक प्रस्तुति के लिए , सादर।

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