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ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती --आशुतोष

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२ 

ये दौलत आदमी को आदमी रहने कहाँ देती

ये बारिश बँध के इन नदियों को भी बहने कहाँ देती

गजब का तैश अहदे नौ के इस आदम में देखा है

ये ऐठन आदमी को आज कुछ सहने कहाँ देती

हुए आजाद आजादी मिली कहने को बस हमको

मगर दहशत दिलों की कुछ हमें कहने कहाँ देती

ये बहशीपन ये गुंडागर्दी ये आतंक का साया

शराफत मेरी दुनिया में मुझे रहने कहाँ देती

महाजन का ही कर्जा माँ ने अब तक न चुकाया है

ससुरजी सोचिये मुफलिस वो माँ गहने कहाँ देती

खुदा का ध्यान रख माथा नवाया माँ के चरणों में

कृपा माँ की कोई दीवार है ढहने कहाँ देते  

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 22, 2016 at 2:22pm
अच्छी ग़ज़ल के लिए बधाई।
कुछ संशोधन अपेक्षित हैं-

जैसे-

"ये वहशीपन ये गुंडागर्दियाँ आतंक के साये"(सुझाव भर है)"

कृपया ध्यान दे...

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