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जंगल और शहर

शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं
जंगल के भीतर
और जंगली बंदर निकल आए हैं
जंगल से शहर में, बस्तियों में....
बंदरों को अब नहीं भाते
जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल
उनके जी चढ़ गया है
चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद
आदमियों के हाथों से,
दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं
वे अपने पसंदीदा व्यंजन
इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले
शर्मीले बंदर
अब किटकिटाते हैं दाँत
कभी कभी गड़ा भी देते हैं
भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से
इन्सानों की सभ्य दुनियाँ में है बड़ी शिकायत
बंदरों ने चैन से जीना मुश्किल कर दिया है
दिन दहाड़े लूट ले रहे हैं
चिप्स, समोसे और कचोरियाँ
सुरक्षित नहीं बचे रास्ते
हलवाई की दुकान से घर तक के
सरकारें चिंतित हैं
वे बनाएगी योजना
और बंदर आ जाएंगे एक दिन
पुलिस की गोली के निशाने पर
शहर और बस्तियाँ शांत हो जाएंगी
और जंगल खामोश ।

(गाँव के सीधे सादे आदिवासियों के लिए जो नक्सली बन रहे हैं )

..... नीरज कुमार नीर ......

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Comment by Neeraj Neer on February 7, 2016 at 7:50am

आपका बहुत आभार अदरणीय मिथिलेश जी ॥ 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 6, 2016 at 11:24pm

आदरणीय नीरज जी, इस गंभीर और संवेदनशील प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

Comment by Neeraj Neer on February 6, 2016 at 8:06pm

आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani साहब आपका बहुत बहुत आभार ..... 

Comment by Neeraj Neer on February 6, 2016 at 7:38pm

जी आपकी बातें पूर्णतः सत्य हैं आदरणीय सौरभ जी ..... आपका बहुत आभार इस रचना को इतना मान देने के लिए .... 

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 6, 2016 at 6:52pm
आदिवासियों के हितार्थ आम आदमी के पास कोई चिंतन ही नहीं है, ऐसे में अंतिम संदर्भ का औचित्य समझ में आया है। इस बेबाक बेहतरीन अनुपम तीखी कृति के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको नीरज कुमार नीर जी। पहली बार आपकी रचना पढ़कर धन्य हुआ। अब आपकी अन्य सभी रचनाएँ पढ़ने की प्रबल इच्छा है।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 6, 2016 at 12:31am

कविता में प्रतीक के तौर पर इंगित बन्दरों को पाठक यदि भौतिक रूप से ढूँढने लगे और कवि इसके प्रति संवेदनशील होने लगे तो कवि या पाठक कितना गिरेंगे ये तो बहस का विषय है. लेकिन कविता जरूर मर जायेगी. कविता को ऐसे पाठकों के बीच आने से बचना चाहिए.. अन्यथा ऐसे पाठक कवि को तो नहीं, मगर कविता की जरूर हत्या कर देंगे. कवि की हत्या इसलिए नहीं कि कवि किसी न किसी रूप में जी ही लेता है. आज के तथाकथित ’कवि-सम्मेलन’ इसके मुखर उदाहरण हैं, जहाँ कविता के अलावा सब कुछ होता है. वहाँ प्रतीकों के बन्दरों को सचमुच का जान कर श्रोता उन्हें पकड़ने दौड़ भी पड़ते हैं और कई बार दंगा हो जाता है.  

Comment by Neeraj Neer on February 5, 2016 at 10:50pm

आपका आभार सतविंदर कुमार जी

Comment by Neeraj Neer on February 5, 2016 at 10:47pm

आदरणीय सौरभ जी इस उत्साहवर्द्धन हेतू  आपका बहुत बहुत आभार ..... जी मैं अपने अपने वातावरण में जो देखता हूँ जीता हूँ वही अभिव्यक्त करने की कोशिश करता हूँ ..... झारखंड जैसे प्रदेश (जहां से दिल्ली बहुत दूर है) में वहाँ के  आदिवासियों पर  हो रहे चौतरफा हमले को देख कर मन व्यथित रहता है ...... उन्हीं आदिवासियों में से कुछ लोग नक्सली नामधारी गुट बना कर अब लूट मार भी कर रहे हैं..... इसमें भी अंततः नुकसान निर्दोष आदिवासियों का होता है जो पुलिस और अपराधी दोनों के निशाने पर आ जाते हैं ...... आपका पुनः बहुत आभार इस समर्थन हेतू ..... और अंतिम पंक्ति इसलिए लिख दी थी कि कई बार ऐसी कविताओं में सही के बंदर ढूँढने लग जाते है ...... मेरी इच्छा नहीं थी कि लिखूँ लेकिन सच यही है कि इसी डर  से लिख दिया था ..... शायद भरोसा कम था.....  

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on February 5, 2016 at 10:41pm
बहुत ख़ूब।सन्दर्भ न देते तो बहुत बहुत प्रभाव छौड़ रहे थे प्रतीक।हार्दिक बधाई आदरणीय

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 5, 2016 at 9:35pm

भाई नीरज नीर जी, आपकी रचनाओं से आपका क्षेत्र अपने वातावरण में बोलता है. उसको सुनने के लोभ में मैं आपकी रचनाओं की प्रतीक्षा करता हूँ. कहना न होगा, आपकी प्रस्तुत रचना के प्रतीक भले ही अभिधात्मक दिखते हों, उनका व्यंजनात्मक असर देर तक बना रहता है. आपकी संवेदनशीलता से यह कविता भी प्राणवान हो गयी है. 

हार्दिक शुभकामनाएँ 

यह अवश्य है कि तनिक संशोधन इस कविता के और कसावट का कारण बन जायेगा. जैसे जहाँ आपने ’सरकार’ कहा है उसे ’व्यवस्था’ कर दें तो यह सार्वकालिक, बहुउद्देशीय विन्दु बन जायेगा. इसी तरह की कुछेक बातें .. 

//(गाँव के सीधे सादे आदिवासियों के लिए जो नक्सली बन रहे हैं ) //

ऐसा आप क्यों बोल रहे हैं ? कविता को ही बोलने दीजिये न ! भाईजी, आपकी कविता के पास इतनी ताकत है कि वह अपनी बातें कायदे से कर ले. आपको अब कुछ भी कहने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती. 

शुभ-शुभ

 

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