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परीक्षाएं सिर पर होने से उसका अधिक से अधिक समय कमरे में ही बीतता था I आज फिर भीतर से ही आवाज़ आई थी I ' मॉम आज मटर की दाल बनाओ न !! '
' अच्छा ' कह मैं मुस्कुराई थी I संभवतः उसने सुन लिया था की मैंने आज सब्जी वाले से मटर ख़रीदे हैं I सोचा ,जा कर पूछ लूँ ! ' और कुछ भी चाहिए !!' भीतर गयी तो कमरे में जो नजारा दिखा ,जेहन में एक ही बात आई ' उफ़ ! ये लड़की भी न !! '

पूरे बिस्तर पर खुली-अधखुली किताबें ,कापियाँ। नीचे दबा हुआ कराहता कैलकुलेटर। बिना कैप की कलम और बीच में किताबों पर सिर झुकाये मूर्ति सी वह !! बात अगर यहीं तक होती तो गनीमत थीI
पलंग के सिरहाने छोटा-मोटा सामान रखने के लिए बनी अलमारी के ऊपर चिप्स का पैकेट ,चॉकलेट्स, खाली रैपर्स,पानी की बोतल, ग्लास, चम्‍मच, सूप के पैकेट्स और न जाने क्या क्या ........ उफ्फ्फ !!
‘‘ये सब क्या है बेटू ? सारी चीजें बिस्तर पर !! स्टडी टेबल का भी वही हाल ! ये कैसी पढ़ाई है? तुम्हारा जी नहीं घबराता ऐसे में I ’’ मैंने लगभग डाँटते हुए कहा।
‘‘ मम्‍मी !! प्लीज !! अब परीक्षा का समय है, कौन बार बार उठे ? टाइम वेस्ट होता है I ’’
‘‘टाइम वेस्ट या आलस ?’’
‘‘नहीं मम्‍मी ,एग्जाम टाइम में ऐसे ही अच्छा लगता है। जब मैं अपनी हॉस्टल की सहेलियों के पास ग्रुप स्टडी के लिए जाती हूँ तो वहाँ सब कुछ ऐसे ही रहता है। सब कुछ आसपास नजरों के सामने !! अब तुमने तो मुझे हॉस्टल नहीं भेजा, तो यहीं सही ! मुझे हॉस्टल जैसा फील आता है इस तरह, बस!! ’’ वह शिकायत के अंदाज में बोली I
मुझे उसकी बात का कोई उत्‍तर नहीं सूझा। पर बरबस हँसी जरूर आ गई।
‘‘तुम हँसी क्यों? दीदी भी तो हॉस्टल में ऐसे ही रहती है I’’ वह तुनककर बोली I
दीदी का नाम सुनते ही मुझे कुछ याद आ गया I अरे बाप रे !! आज तो बड़ी बेटी घर आने वाली है। घड़ी में समय देखा, साढ़े दस ! ओह, उसकी ट्रेन तो आ भी चुकी होगी। तभी कालबेल बजी !! दरवाजे पर बड़ी थी शिकायती लहजे में, ‘‘माँ तुम मुझे स्टेशन लेने नहीं आईं ?’’
‘‘अरे ये छोटी छोड़े तब आऊँ न। ’’ मैंने कहा।
‘‘क्‍यों क्‍या हुआ? और वह है कहाँ? ’’ मैं कुछ कहती ,इससे पहले ही वह अपना बैग एक ओर रखकर छोटी के कमरे में पहुँच गई। पीछे -पीछे मैं भी। कमरे का नजारा देख वह भी हैरान रह गई। पूछ बैठी, ‘‘ये सब क्या है छोटी ? ’’
‘‘अरे दीदी, तुम!! देखो लग रहा है न बिलकुल हॉस्टल के कमरे जैसा,सेम सेम !! ’’ उत्साहित होकर छोटी बड़ी के गले लग गई।
‘‘ बिलकुल बुद्धू है , तू क्या जाने ! हॉस्टल के उस छोटे से कमरे में हम किस तरह मजबूरी में अपना समय अपनों के बिन काटते हैं। तू तो माँ के साथ है। इतना बड़ा कमरा और खुला आसमान है तेरे पास। हमें तो बस आसपास खामोश दीवारें ही नजर आती हैं। अपनों के प्यार और घर के सुकून के लिए तरस जाते हैं हम I’’ कहते हुए गला भर्रा गया उसका।
छोटी ने बड़ी को और जोर से भींच लिया। मानो उसके दर्द को वह भी महसूस कर लेना चाहती हो। उसकी नजर मेरी ओर उठ गई थी। मैं आँचल से अपनी भीग आई आँखों को पोंछ रही थी और वह बहन के दुप्‍पटे से अपनी।

मीना पाण्डेय
मौलिक व् अप्रकाशित

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Comment by meena pandey on December 29, 2015 at 9:13pm

हार्दिक आभार आदरणीय राजेश कुमारी जी मई आपकी बात का संज्ञान अवश्य लुंगी I धन्यवाद सहित 

Comment by meena pandey on December 29, 2015 at 9:11pm

हार्दिक आभार आदरणीय pratibha  pande  जी 

Comment by meena pandey on December 29, 2015 at 9:10pm

आदरणीय कांता जी लघुकथा की बारीकियों को इस प्रकार समझने के उपक्रम से अभिभूत हूँहार्दिक आभार इसके लिए मई आपकी बात का संज्ञान अवश्य लुंगी धन्यवाद सहित I 


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Comment by rajesh kumari on December 23, 2015 at 6:54pm

बहुत अच्छा लिखा है आपने मीना जी ,मैं आ० कांता जी की बात से भी सहमत हूँ कहीं न कहीं उस पञ्च लाइन की कमी महसूस हुई जो लघु कथा को विशेष बनाती है |फिर भी आपको इस सुन्दर रचना के लिए बहुत-बहुत बधाई| 

Comment by pratibha pande on December 22, 2015 at 7:13pm

बाहर निकल कर ही बच्चों को माँ और उसके साथ की कीमत पता पड़ती है ,बहुत अच्छी कथा सधे कथ्य और शिल्प के साथ ,हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीया मीना जी 

Comment by kanta roy on December 22, 2015 at 12:59pm

आपकी लेखन बहुत अच्छी है ,भावों को पिरोना  भी खूब जानती है ,इसलिए पहले बधाई प्रेषित करती हूँ।  बाकी बात अब विधा सम्मत करे तो   यहां आपका " मैं " भाव ने , ये मात्र  संस्मरण यानी आपकी कथा  बन कर रह  गयी। लघुकथा सन्देश स्थापित करते हुए जैसे  एकदम से चूक  गयी ,ऐसा मेरा मानना है। सादर 

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