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चैनल दर चैनल ( लघु कथा ) जानकी बिष्ट वाही

"कितने मिष्ठ भाषी,सौम्य और मिलनसार थे तेरे पापा ।आज़कल न जाने उन्हें क्या हो गया।" माँ ने राघव से कहा।
" माँ ! मुझे भी ऐसा ही लग रहा है।मैं आज़ ही अपने मनोचिकित्सक दोस्त विवेक से इस बारे में बात करता हूँ।कि इस बदले व्यवहार का क्या कारण है।"
छः महीने पुरानी बात थी ज़ब पापा रिटायर हुये थे खूब खुश थे।
" बहुत काम कर लिया ।अब तो जिंदगी जीनी है।"
बस तभी से घर पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। चैनल दर चैनल ये सिलसिला बढ़ता ही गया।
सुबह होते ही हिदायतें शुरू हो जाती।" आरव को ,स्कूल ठीक से पहुँचाओ,कहीँ अपहरण न हो जाये।"
माँ पर बरसते " सजी-धजी सीरियल की औरतों की तरह मत समझना अपने को ,ये घर है।"
" साले, सब के सब चोर हैं।"महंगाई के साथ उनका ब्लड प्रेशर बढ़ने लगता।
रात होते ही घर किले में बदल जाता।" आज़क्ल किसी का भरोसा नहीं सब खूनी- डकैत हैं।" हर बात पर क्राइम पेट्रोल झलकता उनकी बातो से।
ये सारी बातें सुनकर डॉक्टर विवेक बोला-" इतनी नकारात्मकता ? अगर इनका ये हाल है तो पूरे देश का क्या होगा ?"
" अब ये देश कहाँ से आ गया बीच में " राघव बोला ।
" राघव! समस्या बड़ी विकट है।मर्ज़ और अधिक बढ़े उससे पहले रोकना पड़ेगा।"
" ज़ल्दी कुछ कर विवेक । मुझे पापा की बहुत चिन्ता हो रही है।"
" राघव ! ज्यादा कुछ नहीं करना।अंकल का टीवी देखना बन्द करवा दो सब ठीक हो जायेगा।" विवेक मुस्कुराते हुए बोला।

जानकी बिष्ट वाही
मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on November 12, 2015 at 11:35pm

हा हा हा बहुत खूब 

बढ़िया प्रस्तुति 

बधाई 

Comment by Janki wahie on November 12, 2015 at 12:38am
आ.तेजवीर सिंह जी सादर आभर ।कथा पर सार्थक टिप्पणी कर उसका मान बढ़ाने के लिए।नमन।
Comment by Janki wahie on November 12, 2015 at 12:36am
शुक्रिया प्रिय राहिला ।
Comment by Rahila on November 11, 2015 at 6:44pm
हा.हाहा. .खूब प्रिय जानकी दी! बहुत दिनों बाद आपकी रचना पढ़ी।सच,बहुत सार्थक लगी । कहीं ना कहीं सब का यही हाल है । बहुत बधाई आपको ।
Comment by TEJ VEER SINGH on November 11, 2015 at 6:00pm

हार्दिक बधाई आदरणीय जानकी  जी!आजकल के हालात को बखूबी उजागर करती रचना!यह स्थिति सचमुच भयावह होती जा रही है!बेहतरीन लघुकथा!

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