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ग़ज़ल : मैं पागल था मगर इतना नहीं था

बह्र : १२२२ १२२२ १२२

 

सनम जब तक तुम्हें देखा नहीं था

मैं पागल था मगर इतना नहीं था

 

बियर, रम, वोदका, व्हिस्की थे कड़वे

तुम्हारे हुस्न का सोडा नहीं था

 

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ

मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था

 

यकीनन तुम हो मंजिल जिंदगी की

ये दिल यूँ आज तक दौड़ा नहीं था

 

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी

कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 28, 2015 at 11:24am

शुक्रिया आदरणीय श्याम नारायण जी

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 28, 2015 at 11:24am

शुक्रिया आदरणीय मनोज जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 11:02am

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ

मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था   -- क्या बात है !! आदरणीय बेहतरीन गज़ल कही है , इस शे र के लिये और गज़ल के लिये आपको हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 28, 2015 at 10:48am

अंदाजे बयां  का कमाल है , बढ़िया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 27, 2015 at 10:26pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी, शानदार ग़ज़ल हुई है, जमीन पुरानी है लेकिन कहन का अंदाज़ बिलकुल नया और ताजगी भरा है. बहुत बधाई 

ये दो अशआर तो कमाल है इन पर दिल से दाद और दुआएं 

हुआ दिल यूँ तुम्हारा क्या बताऊँ

मुआँ जैसे कभी मेरा नहीं था................. मुआँ ने अपना कमाल दिखाया है.

तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी

कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था.......... रिवायती शेर मगर प्रतीक और कहन का अंदाज बिलकुल नया और निराला

पुनः बधाई  

Comment by जयनित कुमार मेहता on September 27, 2015 at 2:01pm
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है..बधाई स्वीकारें!!
Comment by ajay sharma on September 26, 2015 at 11:51pm

khoob kaha hai 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 26, 2015 at 8:03pm
तुम्हारे हुस्न की जादूगरी थी
कोई मीलों तलक बूढ़ा नहीं था
-------------


सारे शेर बढ़िया हैं;एक ताज़ा ग़ज़ल: बधाइयाँ
Comment by Shyam Narain Verma on September 26, 2015 at 4:54pm
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "
Comment by मनोज अहसास on September 26, 2015 at 4:26pm
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल आदरणीय धर्मेन्द्र जी
वाहवाह
इस ग़ज़ल से एक पुरानी ग़ज़ल की याद आती है जिसे जगजीत सिंह ने गाया है

तेरे बारें में जब सोचा नहीं था
मैं तनहा था मगर इतना नहीं था


बहुत बहुत आभार
सादर

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