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ग़ज़ल - आइनों से पत्थरों के वास्ते ( गिरिराज भंडारी )

 2122        2122        212 

खुशनुमाँ से अवसरों के वास्ते

आसमाँ तो हो परों के वास्ते

 

मै तो आईना लिये फिरता हूँ अब

आइनों से पत्थरों के वास्ते

 

अब तो दीवारें गिरायें यार हम

गिर रहे हैं उन घरों के वास्ते

 

थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा

बे सबब झुकते सरों के वास्ते

 

कुछ बहाने और हैं, ले जाइये

आदतन से कायरों के वास्ते

 

मैं हक़ीकत बाँध के लाया हूँ आज 

कुछ छिपे अंदर डरों के वास्ते

 

बस दुआ ही हाथों में अपनें बची

राह भूले रहबरों के वास्ते 

 

एक पीपल मैं लगा आया तो हूँ    

मौन साधे खँडहरों के वास्ते

 

जुगनुओं में आज ये चर्चा हुआ

वो जलेंगे तम - दरों के  वास्ते

*****************************
मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment by Meenakshi Sukumaran on September 29, 2015 at 1:42pm

bahoot khoob


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:08am

आदरणीय धर्मेन्द्र भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका दिली शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:07am

आदरणीय कृष्णा भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:06am

आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का बेहद शुक्रिया , आपको दो शे र पसंद आये तो गज़ल कहना सफल हुआ । आपका आभार ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:05am

आदरणीय अजय भाई , सराहना के लिये आपका बहुत शुक्रिया ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:04am

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपकी स्नेहिल सराहना के लिये आपका आभारी हूँ ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 8:04am

आदरणीय रवि भाई  , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ।
आदरणीय काफिया दो रचना कारों के एक ही  रहने से भी  क्या फर्क पड़ता है , काफिया रदीफ कर किसी एक का एकाधिकार तो नही होता , आप बेख़टके अपनी ग़ज़ल कहें , आप की गज़ल का इंतिज़ार रहेगा ।


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Comment by गिरिराज भंडारी on September 28, 2015 at 7:59am

आदरनीय श्याम भाई , उत्साह वर्धन के लिये आपका आभार ।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 26, 2015 at 10:19am
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय गिरिराज जी, दिली दाद कुबूल कीजिए।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on September 24, 2015 at 3:26pm
थोड़ी अकड़न भी अता करना ख़ुदा
बे सबब झुकते सरों के वास्ते

बेहतरीन गजल हुयी है आ.गिरिराज सर..शेर दर शेर दाद कबूल फरमाएँ।सादर।

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