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पराश्रित तो नहीं (लघुकथा )

"मम्मी स्कूल की नौकरी , बिट्टू को पढ़ाने के बाद रात का खाना बनाना मेरे बस की बात नहीं हैं।"
"लेकिन बहू घर का अन्य काम तो इस उम्र में भी मैं ही करती हूँ तो क्या तुम एक समय का खाना भी नहीं बना सकती ?"
"नहीं बना सकती क्योकि मैं नौकरी करती हूँ , आपकी तरह घर में नहीं बैठी रहती "
ससुरजी हस्तक्षेप करते हुए -
"बस बहुत हो गया बहू , आज से तुम अपनी गृहस्थी देखो और हम अपनी जिम्मेदारी खुद उठा लेंगे और फिर हम पराश्रित भी तो नहीं हैं ।"

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Archana Tripathi on August 25, 2015 at 11:54pm
शुक्रिया राजेश कुमारी जी ,कथा पर इतनी गहनता से विचार ककरने और अमूल्य समय देने के लिए हार्दिक आभार।
Comment by Archana Tripathi on August 25, 2015 at 11:50pm
शुक्रिया गिरिराज भंडारी जी, आपका हार्दिक धन्यवाद|
Comment by Archana Tripathi on August 25, 2015 at 11:49pm
शुक्रिया जीतेन्द्र पस्टारिया जी रचना पर अमूल्य समय देने के लिए

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 25, 2015 at 1:02pm

सब अपना अपना कम्फर्ट देखते हैं थोड़ी सूझ बूझ के साथ ये समस्याएं हल की जा सकती हैं ये बात भी सच है की बुजुर्गावस्था में सास का किचेन में घुसे रहना मुनासिब नहीं होता वो भी आराम चाहती है जो बहु नौकरी करती हैं वो खुद इतनी थक जाती हैं की उनकी बात भी अपनी जगह सही है यदि आर्थिक रूप से संपन्न हैं तो किसी को खाना बनाने के लिए रख सकते हैं दोनों अपनी अपनी तनख्वा से इतनी मदद तो कर ही सकते हैं यदि आर्थिक स्थिति सही नहीं है तो शारीरिक रूप से काम को सब बांट कर कर सकते हैं ...किन्तु सबसे बड़ी परेशानी है की एक दुसरे को झेलना नहीं चाहते जहाँ बेटा बहु स्वतंत्रता चाहते हैं वहीँ सेल्फ डीपेंडेंट स्वाभिमानी सास ससुर भी अपनी लाइफ अपने तरीके से जीना चाहते हैं |कहानी बहुत से प्रश्नों को सामने लाती है बहुत अच्छी लगी हार्दिक बधाई आपको | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 25, 2015 at 9:58am

पारिवारिक कलह की सुरूवात ऐसे ही होती है , अच्छी लगी आपकी लघु कथा ! बधाई आपको ।

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on August 25, 2015 at 3:41am

परिवार ही से ऐसे कई उठे सवालों और चिंतन को सरोकार करती बहुत ही बढ़िया लघुकथा. बधाई स्वीकारें आदरणीया अर्चना जी

Comment by Archana Tripathi on August 24, 2015 at 1:31am
आ.मिथिलेश वामनकर जी आपने रचना को अमूल्य समय दिया जिसके लिए आपकी आभारी हूँ।
यह तो हमारा सामजिक ढांचा ही इसतरह निर्मित हो चूका हैं की पुरुष अगर सहयोग दे भी दे तो उसपर अनेको अलंकार पहन दिए जाते हैं धीरे धीरे परिवर्तन आ रहा हैं जो समय की मांग भी हैं ।सादर
Comment by Archana Tripathi on August 24, 2015 at 1:26am
आ.कांता राय जी ,डा.गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी,ओमप्रकाश क्षत्रियजी ,तेज वीर सिंह जी ,प्रतिभा पाण्डेय जी और ममता जी आप सभी मित्रों का रचना को अमूल्य समय देने और समीक्षात्मक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार ।सदैव मार्गदर्शन करते रहिये।
Comment by kanta roy on August 22, 2015 at 6:37pm
बहुत खूब लघुकथा हुई है आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी । बधाई स्वीकार करें ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 22, 2015 at 5:26pm

इस लघुकथा को पढ़कर विचार आया कि खाना बनाने की उम्मीद सास और बहू से ही की जाती है, पता नहीं बेटे और ससुर के दायित्व इतने कम क्यों नियत है. सब नीयत की बात है....

बहरहाल इस सशक्त लघुकथा पर हार्दिक बधाई आपको आदरणीया अर्चना जी 

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