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तमीज से गुजर मियाँ - सुलभ

गजल
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बहर - 212 1212 1212 1212
काफिया - अर, रदीफ - मियाँ

किस्म-किस्म के जहर हैं हमपे बेअसर मियाँ
उम्र बीती आदमी का झेलते जहर मियाँ

दर्द बाँटने अगर तू आया है अवाम का
आसमान से जरा जमीन पर उतर मियाँ

सब तुम्हारे गुम्बदों की शान से सिहर गए
झोपड़ी मेरी तबाह कर गए कहर मियाँ

चाह मंजिलों की थी न जीत की ललक रही
वक्त ही गुजारना था, तय किए सफर मियाँ

अंधड़ों से लड़ता एक दीप मिल ही जाएगा
देख अपने दिल में एक बार झांक कर मियाँ

ताज-तख्त ठोकरों पे रहते आए हैं यहाँ
प्यार की गली है ये तमीज से गुजर मियाँ

रक्ख दी थीं म्यूजियम में कीमती धरोहरें
हो गयीं सफाई में कहीं इधर-उधर मियाँ

-------- सुलभ अग्निहोत्री

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 13, 2015 at 11:21am

वाह  वह्ह्ह्ह बहुत शानदार ग़ज़ल हुई शेर दर शेर दाद कुबूलें आ० सुलभ जी|

Comment by Ravi Shukla on August 13, 2015 at 11:21am

अादरणीय सुलभ जी बडा पसंद आया ग़ज़ल का अंदाज बधाई कुबूल करें

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 13, 2015 at 11:12am

आ0 सुलभ भाई . इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई .

Comment by amod shrivastav (bindouri) on August 13, 2015 at 10:07am
वाह बहुत खुबसूरत
बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 13, 2015 at 9:00am

आदरणीय सुलभ भाई , क्या बात है ! बहुत लाजवाब गज़ल कही है , तेवर भी खूब पसंद आया । पूरी गज़ल के लिये आपको दिली मुबारक बाद ॥

Comment by Jatinder Aulakh on August 13, 2015 at 6:04am
Bahut hi khoobsurat ...share karne ke lye dhanvaad

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 12, 2015 at 10:38pm

लफ्ज़ दर लफ्ज़ खनकती बह्र में शानदार ग़ज़ल हुई है आदरणीय सुलभ जी. इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद और शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

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