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ग़ज़ल :- मैं शर्मिंदा नहीं अपने किये पर

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन फ़ऊलुन

भले लिख दो,मिरा ग़म हाशिये पर
मैं शर्मिंदा नहीं अपने किये पर

अँधेरा इस क़दर फैला हुवा था
नज़र सबकी थी छोटे से दिये पर

मिरा कुछ बोझ हल्का हो गया है
मिरे बच्चों ने भी अब ले लिये पर

तुम्हारे हुस्न पर मिसरा लिखा था
कई शर्तें लगी थीं क़ाफ़िये पर

मिरी ग़ज़लो प सर धुंते हैं अपना
ये देंगे दाद मेरे मर्सिये पर

सभी शाइर समझ बैठे हैं उसको
किसी को शक नहीं बहरूपिये पर

"समर",ये लफ़्ज़ बे मतलब है कितना
हमारी जान सदक़े,शुक्रिये पर

"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by मनोज अहसास on August 11, 2015 at 5:03pm
आपकी ताज़ा ग़ज़ल पर बहुत दिल से नमन
खूबसूरत कलाम में अनेको बातें आपने पिरोई है
मर्सिये का अर्थ नहीं पता है हमे
बता देगे तो मेहरबानी होगी
आपकी ग़ज़ल के बारें में बहुत कुछ कहने का मन करता है
पर बस कहुगा नहीं
क्योंकि वो इससे खूबसूरत नहीं हो सकता
इनायत
सादर

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Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 3:24pm

आदरणीय समर भाई , हर शे र क़ाबिले दाद है , पूरी गज़ल बेमिसाल हुई है , दिली मुबारकबाद हाज़िर है , कुबूल फरमाइये ।

धुंते  को धुनते  लिखना सही होगा  , मात्रा वही है , पर शब्द  धुनना है ।

Comment by Harash Mahajan on August 11, 2015 at 1:46pm

आदरणीय समर जी हर शेर मुबारक मांगता है ....बहुत बहुत दाद आपके इस कलाम पर !! साभार !!

Comment by Ravi Shukla on August 11, 2015 at 1:34pm

आरणीय समर कबीर जी

अापके कलाम का इंतजार रहता है

पढ़ कर अच्‍छी लगी ग़ज़ल । मुबारक बाद कुबूल करें । अशआर खुद भी बोलते है और इशारे भी करते है ।  ग़ज़ल की यही खूबसूरती हमने थोड़े से अभ्‍यास से सीखी है । इसी तरह अपने कलाम से हमारे अभ्‍यास को दिशा देते रहेंगे । आभार


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 11, 2015 at 12:54pm

वाह वाह वाह वाह वाह 

बेमिसाल ग़ज़ल ... शानदार ग़ज़ल......एक एक शेर मोती जैसा ....  नमन आपकी कलम को 

कृपया ध्यान दे...

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