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असाधारण- लघुकथा (मिथिलेश वामनकर)

“आप सरकारी नौकरी के साथ समाज सेवा कैसे कर लेते है?”

“जब नौकरी से फ्री होता हूँ तो खाली समय का उपयोग कर लेता हूँ.”

 “आपको झुग्गी-बस्ती में शिक्षा के प्रसार की प्रेरणा कहाँ से मिली?”

“हा हा हा... प्रेरणा व्रेरणा कुछ नहीं भाई.... स्लम एरिया के पास वाले सिग्नल पर बच्चों को सामान बेचते और भीख मांगते देखा, तो स्लम में चला गया... लोगों से बात की तो लगा कुछ करना होगा और असली काम तो वालेंटियर ही कर रहे है.”

“आपको सब पर्यावरण-मित्र कहते है क्योकिं आप इतने बड़े ओहदे पर है फिर भी पैदल ऑफिस जाते है. क्या ये सही है?”

“हा हा हा .... पर्यावरण मित्र तो हूँ लेकिन... भई मेरा घर ऑफिस के पास ही है इसलिए पैदल ही चल देता हूँ.”

“सभी जानना चाहते है कि आपके इस असाधारण व्यक्तित्व का क्या राज़ है?”

“भाई... बहुत ही साधारण आदमी हूँ ..... पता नहीं आपको क्या असाधारण लगा?.....”

इसके बाद वह एक भी प्रश्न नहीं कर सका.

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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Comment by विनय कुमार on August 6, 2015 at 2:58pm

इस दुनियाँ में सबसे कठिन है साधारण होना , ये शायद सबसे असाधारण बात है | बहुत अच्छी लघुकथा आदरणीय मिथिलेशजी , बधाई.

Comment by Sushil Sarna on August 6, 2015 at 1:44pm

वाह आदरणीय मिथिलेश जी वाह एक प्रेरणास्पद वाक्ये को कितनी सुंदरता से आपने अपनी लघुकथा में प्रदर्शित किया है। पंच लाईन इस कथा को असाधारण बना गयी। हार्दिक हार्दिक बधाई सर जी। 

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