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लघुकथा – इच्छा  

“ आज ऐसा माल मिलना चाहिए जिसे मेरे अलावा कोई और छू न सके,” कहते हुए ठाकुर साहब ने नोटों की गड्डी अपनी रखैल बुलबुल के पास रख दी और वहां से उठा कर हवेली के अपने कमरे में चल दिए.

“ जी सरकार ! इंतजाम हो जाएगा, ” कहते ही बुलबुल को याद आया कि सुबह ठकुराइन ने कहा था, ‘ बुलबुल बहन ! ठाकुर साहब तो आजकल मेरी और देखते ही नहीं. मैं क्या करूं ? ताकि उन को पा सकूं ? ’

यह याद आते ही उस की आँखों में चमक आ गई. उस ने नोटों से भरा बेग उठाया. फिर गुमनाम राह पर जाते-जाते ठाकुर और ठकुराइन को यह खबर भेज दी कि आज आप दोनों रात को दस बजे उस के अँधेरे कमरे में आ जाए, “ आप की इच्छा पूरी हो जाएगी.”  और बुलबुल उड़ गई.

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मौलिक और अप्रकाशित 

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 21, 2015 at 12:33am

मेरे कहे का मर्म समझने केलिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया अर्चनाजी. 

Comment by Archana Tripathi on August 21, 2015 at 12:31am
बेहद सुंदरता से स्पष्ट किया हैं आपने उक्त लघुकथा को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी ।

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 20, 2015 at 11:30pm

आदरणीय ओमप्रकाशजी, इस लघुकथा के संशोधित स्वरूप में संभवतः वह सब है जो एक लघुकथा में होना चाहिये. लेकिन वह संवेदना भी होनी चाहिये कि ऐसी लघुकथाएँ किस पाठक वर्ग के लिए हैं. 

साहित्य का लक्ष्य मनुष्य और समाज है. लेकिन जो समाज लघुकथा में है वह सामंती समाज कमसेकम अब आम नहीं रह गया है, न रखैल या कुटनी स्त्री या रक्कासा इस कदर जीवन का हिस्सा हैं. स्वरूप बदल गया है.  धन और धनपशु मेट्रोज में  ’एस्कोर्ट्स’ के फेर में हुआ करते हैं.  आप स्वयं समझदार है. 

शुभ-शुभ

Comment by Omprakash Kshatriya on August 7, 2015 at 7:58am

आदरणीय  मिथिलेश वामनकर  जी आप ने मेरी त्रुटि की और ध्यान दिलाया. अभारी हूँ. मगर इसे में सुधार करता हूँ तो फिर यह अप्रूवल में जाएगी. इसलिए सुधार नहीं कर पा रहा हूँ. ( आजकल मेरी और / ओर देखते ही नहीं)

Comment by Omprakash Kshatriya on August 6, 2015 at 1:56pm
आ मिथिलेश जी आ कांता जी आ रवि जी यदि लघुकथा में निखार आया है तो ये आप के कमेंट का ही कमाल है । वरना मैं इस ओर सोचने को विवश नहीं होता । आभार आप सभी का ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 6, 2015 at 11:43am

बहुत बढ़िया संशोधन हुआ है आदरणीय ओमप्रकाश जी. लघुकथा अपने मर्म को अभिव्यक्त करने में सफल तो थी किन्तु गठन और आपकी कहन का जादू नज़र नहीं आ रहा था. अब संशोधन के बाद कल्पनाओं की छौंक ने सहज सम्प्रेष्य भी किया है और सौन्दर्य को भी निखारा है. आपको इस प्रस्तुति और शानदार संशोधन के लिए हार्दिक बधाई. 

एक जगह टंकण त्रुटी विघ्न पैदा कर रही है- आजकल मेरी और / ओर देखते ही नहीं

सादर 

Comment by kanta roy on August 6, 2015 at 9:55am
" और बुलबुल उड गई "..... कथा का प्राण साबित हुई ये पंक्ति ।
Comment by kanta roy on August 6, 2015 at 9:53am
वाह !!! अब लघुकथा जीवित हो उठी है । चंद शब्दों का फेर और गजब का सौंदर्य पा गई यह । बधाई आपको आदरणीय ओमप्रकाश जी इस सुंदरतम लघुकथा के लिए ।
Comment by Omprakash Kshatriya on August 6, 2015 at 8:27am

आदरणीय सुधीजनों से निवेदन है की अब लघुकथा पर अपनी प्रतिक्रिया दे कर बताए कि लघुकथा  में कुछ जान आई या नहीं.

Comment by Omprakash Kshatriya on August 6, 2015 at 8:25am

लघुकथा – इच्छा  

“ आज ऐसा माल मिलना चाहिए जिसे मेरे अलावा कोई और छू न सके,” कहते हुए ठाकुर साहब ने नोटों की गड्डी अपनी रखैल बुलबुल के पास रख दी और वहां से उठा कर हवेली के अपने कमरे में चल दिए.

“ जी सरकार ! इंतजाम हो जाएगा, ” कहते ही बुलबुल को याद आया कि सुबह ठकुराइन ने कहा था, ‘ बुलबुल बहन ! ठाकुर साहब तो आजकल मेरी और देखते ही नहीं. मैं क्या करूं ? ताकि उन को पा सकूं ? ’

यह याद आते ही उस की आँखों में चमक आ गई. उस ने नोटों से भरा बेग उठाया. फिर गुमनाम राह पर जाते-जाते ठाकुर और ठकुराइन को यह खबर भेज दी कि आज आप दोनों रात को दस बजे उस के अँधेरे कमरे में आ जाए, “ आप की इच्छा पूरी हो जाएगी.”  और बुलबुल उड़ गई.

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"आपका हार्दिक आभार, आदरणीय"
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