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मेरी कराहों की

लोरियां सुनकर

तुम सो गए 

 

रस्सियों से जकड़ी

मेरी देह से

रिसते लहू ने

तुम्हारा मुख धोया 

मेरे पसीने की दुर्गन्ध से

तुम जग गए

 

तुमने और कस दी 

मेरी रस्सियाँ

जो मांस को चीर कर

हड्डियों तक धंस गयीं

मेरी पीड़ा कंठ से निकल 

कपाल में फंस गयी

 

तब तुमने किया

एक विराट अट्टहास

एक भयानक निनाद

और इस बार

मैं ही सो गया

कभी न जगने के लिए 

(मौलिक व् अप्रकाशित )

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 27, 2015 at 4:00pm

आदरणीय गोपाल नारायण सर, यातना की पीड़ा, वो त्रासदी और उसका संत्रास ..... क्या सधी हुई कलम चली है. झकझोर दिया रचना में भीतर तक. इस गहन प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 26, 2015 at 6:16pm
नींद भी कैसी कैसी यातनाओं में ( चिरनिंद्रा ) आ ही जाती है , बहुत मार्मिक कविता , आदरणीय डॉ o गोपाल नारायण जी , बधाई , सादर।
Comment by vijay nikore on July 26, 2015 at 3:52pm

अत्यंत कोमल भावनायेँ एवँ दार्शनिक अभिव्यक्ति| बहुत बहुत बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by kanta roy on July 26, 2015 at 3:40pm
कितना कठोर है यह जीवनांत यात्रा ! मौत का जकड़ना इस तरह की हड्डियों तक चरमरा जाये .... बेहद कटुता से भरी जीवन सत्य के प्रस्तुति मर्मभेदक हुई हुई है । इतने सुंदर जीवन का अंत इतना कठोर ....जिस शरीर को पालते रहे पोषित करते रहे आत्ममुग्ध होकर वो निर्मम अग्नि में जल कर दग्ध हो जाने के क्रम में तत्पर हुआ । जीवन के अंत में .........
इस बार
मैं ही सो गया
कभी न जगने के लिए ....... बेहतरीन रचना आदरणीय डा . गोपाल नारायण जी ..... बधाई

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 26, 2015 at 1:09pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , बहुत मार्मिक कविता हुई है  , वाह !! हार्दिक बधाइयाँ आपको ॥

Comment by Samar kabeer on July 26, 2015 at 11:23am
जनाब गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी,आदाब,बहुत शानदार ,बहुत ख़ूब,वाह वाह ,इस विधा में आपके क़लम को पकड़ पाना बहुत मुश्किल है,इस सुन्दर प्रस्तुति हेतु दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

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