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बारिश थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। कच्ची छत से पानी की धाराएं निरंतर बह रहीं थीं। टपकते पानी के लिए घर में जगह जगह रखे छोटे बड़े बर्तन भी बार बार भर जाते। उसके बीवी बच्चे एक कोने में दुबके बैठे थे। परेशानी के इसी आलम में कवि सुधाकर टपकती हुई छत के लिए बाजार से प्लास्टिक की तरपाल खरीदने चल पड़ा। चौक पर पहुँचते ही पीछे से किसी ने आवाज़ दी:

"सुधाकर जी, ज़रा रुकिए।" आवाज़ देने वाला उसका एक परिचित लेखक मित्र था।   
"जी भाई साहिब, कहिए।" 
"अरे भाई कहाँ रहते हैं आजकल?  परसों सावन कवि सम्मलेन है। मैं चाहता हूँ कि आप बरसात पर कोई ऐसा फड़कता हुआ गीत पेश करें ताकि लोगबाग मस्ती में झूम उठें।"
सावन और बरसात का नाम सुनते ही घर टपकती हुई छत उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई, टपकते हुए पानी को संभालने में असमर्थ बर्तन उसे मुँह चिढ़ाने लगे। 
"क्या सोच रहे हैं? अरे देश के बड़े बड़े कवियों की  मौजूदगी में कवितापाठ करना तो बड़े गर्व की बात है।"  
"वह सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।" 
.

(मौलिक और अप्रकाशित) 

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Comment by vijay nikore on August 15, 2015 at 3:13pm

आदरणीय शुक्ल जी, आपकी १९८५ की कविता पढ़कर आनन्द आया...सुन्दर भाव और शब्द संयोजन।

आपसे ऐसी ही और भी कविताएँ मिलेंगी, यह आशा है। सादर।

Comment by Dr T R Sukul on August 15, 2015 at 2:45pm

"वह सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ नहीं बोला जाएगा।" ---क्या बात है ----

प्रभाकर जी ,
अभी अभी "दोगला सावन"   पढ़ते हुए  मुझे लगा कि वह सुधाकर मैं ही हूँ , और मुझे 8 दिसंबर 1985 को रचित मेरी यह कविता याद आ गई।  आप ही निष्कर्ष निकालें यह क्या है ?
डॉ टी आर शुक्ल , सागर। 
115
खपरैल से निर्विघ्न आती
वर्षा की अनुपम फुहारों से,
आर्द्रशीत अनिल ने भिगोया था तनमन अपना।
मेंढकों की सी जिंदगी में उस दिन...
अपनी भुजा की तकिये  के नीचे से आता 
बड़े चाव से तुम्हारा स्वर सुना।
गुंजरित बसंत कहीं पल्लवित वसुंधरा
स्वतंत्र कामना समूह के अनोखे जाल में
बटोरे थी, आकर्षक संन्निधि अपनी,
बक मीन दर्शन  की दशा  को ,
चित्त दे सौरभ विखेरते शशांक  में 
भूख प्यास भूल तुझे पल पल गुना।
झुन झुन झनकती नक्षत्रों सहित रजनी
मद मदात्त विपुल गंध अंक में समाये गगन,
बहुचर्चित मदन रंग द्रव्य के अपार संग,
मधु मुक्ताभरण के वरण में 
‘‘ए ! व्यथा‘‘ मैं ने तुझको चुना।
8 दिसंबर 1985

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 16, 2015 at 4:08pm

आदरणीय योगराजभाईजी, आपकी लघुकथा की संवेदना नम कर जाती है. कई बार तो हम पाठक यह देख कर चकित रह जाते हैं कि वर्णित घटनाएँ और तदनुरूप पात्रजन्य या लेखकीय अभिव्यक्तियाँ तो हमारे आम जीवन से ली गयी हैं, लेकिन उनका विशिष्ट प्रस्तुतीकरण कितना विन्दुवत और् कितना झन्नाटेदार हुआ करता है !

इसी लघुकथा में ’वह सब तो ठीक है, लेकिन मुझसे झूठ न बोला जायेगा’ किसी त्रस्त मनस की सहज अभिव्यक्ति है. लेकिन इसका इंगित उचित माहौल को व्यापक करता हुआ पाठक से संवेदना की पराकाष्ठा साझा करता है. सफल कथा के लिए हार्दिक धन्यवाद अदरणीय.
हृदयतल से शुभकामनाएँ

Comment by TEJ VEER SINGH on July 16, 2015 at 11:44am

आदरनीय योगराज भाई जी, मज़ा आ गया!कितनी गहनता से एक कवि की व्याकुलता को वर्णित किया है आपने इस लघु कथा के माध्यम से!आपकी सोच और दूरदर्शिता को सलाम!ज़्यादा कुछ लिखूंगा तो छोटे मुंह बडी बात हो जायेगी !हार्दिक बधाई!

Comment by Tanuja Upreti on July 16, 2015 at 10:53am

आदरणीय इतनी भावप्रवण रचना के लिए बधाई स्वीकारें I

Comment by jyotsna Kapil on July 16, 2015 at 9:30am
आदरणीय सर योगराज प्रभाकर जी,आपकी कई कथाएँ पढ़ीं,पढ़कर मालूम हुआ की कितनी सहजता से आप कितनी गूढ़ बात कह जाते हैं। आपके लिए क्या कहुँ ? सूर्य को दीपक दिखाने की धृष्टता कैसे करूँ ? बस आपको सादर नमन कर सकती हूँ।
Comment by Dr. Vijai Shanker on July 16, 2015 at 2:37am
क्या मर्म की बात पकड़ी है आदरणीय योगराज जी, दर्द किसी भी बात का हो दोष प्रकृति को. घर की छत कमजोर है पर लाचार हम सावन को ही दोषी मान लेते हैं, हम ही हैं जिनके यहां पानी बरसते ही डिश टी वी बंद,बिजली बंद, सड़कें - रास्ते बंद , कभी-कभी टेलेफोन भी बंद, ठीक भी नहीं हो सकता , बरसात बाद ही ठीक होगा , आयातित उन्नति में ऐसा ही होता है। उन्नति की किसी भी व्यवस्था पर हमारा वश या नियंत्रण होता ही नहीं , सब कुछ भगवान भरोसे , इसीलिये हम भगवान को सबसे ज्यादा याद करते हैं, व्यवस्था को नहीं, क्योंकि भगवान हमारी सुनता तो है ( ऐसा हम मानते हैं ) , व्यवस्था हमारी कहाँ सुनती है।
कहानी में दर्द का प्रस्तुतीकरण बहुत मार्मिक है। बधाई, सादर।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 15, 2015 at 11:04pm

आदरणीय  योगराज जी इसे लघुकथा की  कक्षा में उदाहरण के तौर पर पेश किया जा सकता है। शानदार लघुकथा है। दिली दाद कुबूल कीजिए।

Comment by VIRENDER VEER MEHTA on July 15, 2015 at 10:31pm
सावन की कल्पना तो एक कवि का मनपसंद विषय होता है लेकिन जीवन की जद्धोजहद में हकीकत की जमीन पर खड़े, कवि के शब्द "मुझसे झूठ नही.....।
रचना का लाजवाव अंत। इस असाधारण रचना के लिये अनुज की ओर से सादर बधाई _/\_ आदरणीय योगराज प्रभाकर सरजी।
Comment by vijay nikore on July 15, 2015 at 9:43pm

केवल कवि का ही नहीं, बहुत अभागों का दर्द इस लघु कथा से बह रहा है।

हार्दिक बधाई।

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