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ग़ज़ल : ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

बह्र : २२१ २१२१ १२२१ २१२

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये

ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

 

जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो

खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये

 

भूखा मरे किसान मगर देश के प्रधान

खाते मिलें कबाब तो लोहा उठाइये

 

पूँजी के टायरों के तले आ के आपके

कुचले गए हों ख़्वाब तो लोहा उठाइये

 

फूलों से गढ़ सकेंगे न कुछ भी जहाँ में आप

गढ़ना हो कुछ जनाब तो लोहा उठाइये

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 11, 2015 at 7:16pm

बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया कान्ता जी


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 11, 2015 at 12:31pm

आदरणीया धर्मेन्द्र भाई , आपकी गज़ले हमरे लिये पाठशाला होती हैं । बहुत अच्छी गज़ल कही है ।

एक प्रश्न का हल खोजते थक गया हूँ , आप ही हल कर सकते हैं , आपने,    लोहा उठाइये क्यों कहा  जब कि आप अच्छी तरह खंज़र शब्द से वाकिफ हैं , क्या राज़ है , कि आप  खंज़र उठाइये नही कहे , क्यों कि आप यूँ ही कोई बात नहीं कहते , मै तो सोच नही पाया । सादर ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 10, 2015 at 8:47pm

वाह क्या बात है . सुन्दर ,

Comment by mohinichordia on July 10, 2015 at 11:07am

 व्यवस्था पर गहरी चोट करती रचना लिखी आपने ,  साधुवाद .

Comment by विनय कुमार on July 9, 2015 at 11:05pm

// जिसको चुना है दिन की हिफ़ाजत के हेतु वो
खा जाए आफ़ताब तो लोहा उठाइये // , वाह , वाह । बेहद शानदार पंक्तियाँ , बधाई क़ुबूल कीजिये आदरणीय..


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 9, 2015 at 10:27pm

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, आपकी यह ग़ज़ल आपकी विशेष रंग वाली ग़ज़लों का अगला शेड है. इन ग़ज़लों का अपना ही मज़ा है. मैं तो खूब मज़े लेता हूँ.

दाद दाद दाद ! ... बधाई धर्मेन्द्रजी. और हार्दिक शुभकामनाएँ.

वैसे, मैं होता एक और शेर कहता -
साहित्य और वाद को आपस में घोल कर
रचना करें जनाब तो लोहा उठाइये ..  

:-)))
शुभेच्छाएँ

Comment by Rahul Dangi Panchal on July 9, 2015 at 9:34pm
बहुत ही अच्छी गजल हुई है आदरणीय बधाई स्वीकार करें
Comment by Sushil Sarna on July 9, 2015 at 8:04pm

हों जुल्म बेहिसाब तो लोहा उठाइये
ख़तरे में गर हो आब तो लोहा उठाइये

वाह क्या बात है … बहुत सुंदर प्रस्तुति … हार्दिक बधाई आदरणीय।

Comment by kanta roy on July 9, 2015 at 6:22pm
वाह !!!! क्या जज्बात है ..... बडी़ दिलेरी है आपकी इन पंक्तियों में ... लोहा उठाने का लगता है अब वक्त आन पडा़ है । बेहतरीन रचना आदरणीय घर्मेन्द्र कुमार जी
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 9, 2015 at 4:21pm
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया परी जी

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